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________________ १० तीर्थंकर चरित्र ललितांग देव, मित्रदेव को सूचना के अनुसार निर्नामिका के समीप आया । निर्नामिका देव के रूप पर मोहित हो गई और उसी के विचारों में देह छोड़ कर ' स्वयंप्रभा' नाम की ललितांग देव की प्रिया के रूप में उत्पन्न हुई । ललितांग भोग में पूर्ण रूप से लुब्ध हो गया । ललितांग देव का च्यवन इस प्रकार भोग भोगते हुए ललितांग को अपने च्यवन ( मरण ) समय के चिन्ह दिखाई देने लगे । रत्नाभरण निस्तेज होने लगे, मुकुट की मालाएँ म्लान होने लगी और वस्त्र मलीन होने लगे । उसे निद्रा आने लगी । वह दीन होने लगा, अंगोपांग ढीले होने लगे । उसकी दृष्टि मन्द होने लगी। उसके कल्पवृक्ष काँपने लगे । अंगोपांग में कम्पन होने लगा । उसका मन रम्य स्थानों में भी नहीं लगता । उसकी यह दशा देख कर स्वयंप्रभा बोली- " नाथ ! आप मुझ पर अप्रसन्न क्यों हैं ? मुझ से ऐसा कौन-सा अपराध हुआ है ?' ललितांग ने कहा - "प्रिये ! तेरा कोई अपराध नहीं है, किन्तु मेरा ही अपराध है । मैने मनुष्य-भव में धर्म की आराधना बहुत कम की, इससे देवायु इतना ही पाया । अब मेरे च्यवन का समय निकट आ रहा है । उसी के ये लक्षण हैं ।" - यह बात हो ही रही थी कि इशानेन्द्र का आदेश मिला - इन्द्र जिनवन्दन को जाते हैं, इसलिए तुम भी चलो।' उसने सोचा--' यह अच्छा ही हुआ। ऐसे समय धर्म का सहारा हितकारी होता है । वह देवी को साथ ले कर जिनदर्शन को गया । वहां जिनेश्वर की वाणी श्रवण से उत्पन्न प्रमोद भाव में रमता हुआ लौट रहा था कि रास्ते में ही आयु पूर्ण हो गया और पूर्व विदेह के पुष्कलावती विजय के 'लोहार्गल' नगर में सुवर्णजंघ राजा की लक्ष्मी नाम की रानी की कुक्षी से पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ । उसका नाम 'वज्रजंघ' रखा गया । Jain Education International मनुष्य भव मैं पुनः मिलन ललितांग के विरह से दुखित हुई स्वयंप्रभा भी धर्म-रुचि वाली हुई और वहाँ से च्यव कर उसी पुष्कलावती विजय की पुंडरी किनी नगरी के वज्रसेन नाम के चक्रवर्ती राजा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001915
Book TitleTirthankar Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1976
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size8 MB
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