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________________ भ• ऋषभदेवजी--मनुष्य भव में पुनः मिलन २१ की गुणवती रानी की पुत्री हुई । वह अतिशय सुन्दर थी। उसका नाम ' श्रीमती ' हुआ । यौवन वय प्राप्त होने पर एक दिन वह महल को छत पर चढ़ कर नागरिक एवं प्राकृतिक शोभा देख रही थी। उधर मनोरम नामक उद्यान में एक मुनिराज को केवलज्ञान उत्पन्न हो गया था। उन केवली भगवान के दर्शनार्थ देवता आ रहे थे। उन देवों को देख कर राजकुमारी श्रीमती की पूर्व-स्मृति जाग्रत हुई । वह सोचने लगी--"ऐसा देवरूप तो मैने कहीं देखा है।" इस प्रकार सोचते हुए उसे जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हो गया। उसने अपना पूर्वभव देखा और मूच्छित हो गई। शीतल चन्दनादि से उपचार किया गया और वह सावधान हो गई। उसने सोचा--" मेरे पति ललितांग देव भी मनुष्य-भव प्राप्त कर चुके हैं। वे भी इस पृथ्वी पर ही कहीं होंगे। वे मेरे हृदयेश्वर हैं । में उन्हीं के साथ वचन व्यवहार करूंगी। वे जब तक मझे नहीं मिलते तब तक में किसी दूसरे के साथ नहीं बोलंगी और मौन ही रहूँगी।'' इस प्रकार निश्चय कर के वह मौन ही रहने लगी। जब उसने बोलना बन्द कर दिया, तो सखियों ने देव-दोष की कल्पना कर ली और मन्त्रादि उपचार होने लगा, किन्तु परिणाम शून्य ही रहा। उसे कोई काम होता, तो वह लिख कर अथवा संकेत से बता देती । यह देख कर उसकी पंडिता' नाम की धात्री ने एकान्त में कहा--'पुत्री! तू विश्वास रख, मैं तेरा हित ही करूँगी । तेरे मन में जो बात हो, वह मुझे बता दे । मैं उसका उपाय करूँगी, धात्री-माता की बात सुन कर राजकुमारी ने अपना पूर्वभव सुना कर मनोभाव बता दिया। धात्री ने एक पट पर कुमारी और ललितांग के पूर्वभव को चित्रांकित किया और चित्रपट ले कर रवाना हुई। उस समय वज्रसेन चक्रवर्ती की वर्षगाठ आ गई थी। उसका बड़ा भारी उत्सव हो रहा था। उस उत्सव में सम्मिलित होने के लिए दूर-दूर से अनेक राजा और राजकुमार आ रहे थे। पंडिता उस चित्रपट को ले कर राजमार्ग में खड़ी रही। लोग उस चित्रपट को देखते और चले जाते । 'दुर्दान्त' नाम का एक राजकुमार भी उस उत्सव में सम्मिलित होने आया था। उसने राजकुमारी के सौन्दर्य का वर्णन तथा चित्रपट प्रदर्शन का आशय सुना। उसके मन में कूमारी को प्राप्त करने की लालसा जगी। उसने कुछ जानकारी प्राप्त की और चित्रपट देखने को गया। देखते ही मूच्छित होने का ढोंग कर के गिर पड़ा और कुछ समय पश्चात् चेतना प्राप्त करने का डौल कर के उठा और कहने लगा कि “यह तो मेरे पूर्वभव से संबंधित चित्र है। मैं स्वयं ललितांग देव था और राजकुमारी मेरी स्वयंप्रभा देवी थी।" इस प्रकार उसने जाल बिछाया । पंडिता उस राजकुमार के ढंग देख कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001915
Book TitleTirthankar Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1976
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size8 MB
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