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________________ भ० ऋषभदेवजी--निर्नामिका का वृत्तांत वहाँ की क्षेत्र जन्य वेदना भी महा भयंकर होती है। नारक जीवों के दुःख तो तुम्हारे लिए परोक्ष हैं, किन्तु जलचर, थलचर और नभचर तिर्यंच जीव भी अनेक प्रकार के दुःख भोगते हैं। जलचरों में से कुछ जीवों का भक्षण तो जलचर ही कर जाते हैं, कुछ का बकादि पक्षी और कुछ को मनुष्य मार कर, भुन कर और पका कर खाते हैं। उनकी चमड़ी उतारते हैं, अंग-प्रत्यंग काटते हैं। स्थलचर हिरन आदि निर्बल जीवों का सबल सिंहादि खा जाते हैं, शिकारी लोग निशाना बना कर मार डालते हैं । बैल आदि पर शक्ति से अधिक भार लादते हैं। उन्हें भूख प्यास, शीत, उष्ण आदि सहन करना पड़ता है। चाबुक, आर और लाठी आदि का प्रहार सहन करना पड़ता है। नभचर--तीतर, कपोत, चिड़िया आदि को बाज, गिद्ध आदि पक्षी पकड़ कर खा जाते हैं और शिकारी भी मार गिराते हैं । इस प्रकार जीवों को अपने कर्मानुसार अनेक प्रकार के भयंकर दुःख भोगने पड़ते हैं। मनुष्यों में भी कई जन्मान्ध हैं, कई बहरे, गूंगे, पंगु और कोढ़ी हैं। कई चोरी, हत्यादि अपराध के दण्ड में शूली, फांसी आदि का दण्ड भोगते हैं। कई दास बना कर बेचे जाते हैं । उनसे पशु की तरह काम लिया जाता है और भूख-प्यास आदि के कष्ट सहना पड़ते हैं । असह्य व्याधियों से पीड़ित मनुष्य, मृत्यु की कामना करते हैं। देव भी पारस्परिक लड़ाई आदि से दुःख भोगते हैं। स्वामी की सेवा में उन्हें क्लेश होता है । इस प्रकार यह संसार, स्वभाव से ही दारुण दुःख का घर बना हुआ है। इसके दुःख का पार नहीं है। इस दुःख के प्रति कार का एकमात्र उपाय श्री जिनोपदिष्ट धर्म है । हिंसा, असत्य, अदतग्रहण, अब्रह्म और परिग्रह के सेवन करने से जीव, अपने लिए दुःखदायक कर्मों का संचय करता है । इनका सव अथवा देश से त्याग ही सुख की सामग्री है।" सर्वज्ञ भगवान् का उपदेश सुन कर निर्नामिका प्रतिबोध पाई। उसने सम्यक्त्व सहित पाँच अगुव्रत को स्वीकार किया और घर आ कर वह रुचिपूर्वक धर्म का पालन करने लगी। वह अनेक प्रकार के तर भी करने लगी । वह यौवन वय पा कर भी कुमारिका ही रही । उस के कुरू। और दुर्भाग्य के कारण उसके साथ विवाह करने को कोई भी तय्यार नहीं हुआ। इससे संसार से विरक्त हो कर निर्नामिका ने युगन्धर मनिराज के पास अनशन ग्रहण किया और अभी धर्मध्यान में रही हुई है । इसलिए हे ललितांग ! तुम अभी उसके पास जाओ और उसे अपना दर्शन दो । तुम्हारे रूप को देख कर वह तुममें आसक्त होगी और मृत्यु पा कर तुम्हारी प्रिया के रूप में उत्पन्न होगी।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001915
Book TitleTirthankar Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1976
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size8 MB
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