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________________ चक्रवर्ती सनत्कुमार बोल उठी ; वे जलक्रीड़ा कर ही रहे थे कि उनका पूर्वभव का शत्रु असिताक्ष नामक यक्ष वहाँ आ पहुँचा। आर्यपुत्र को देखते ही उसका वैर जाग्रत हुआ । उसने उन पर आक्रमण कर दिया, किंतु आर्यपुत्र ने साहस के साथ उसका सामना किया और उसे परास्त कर के भगा दिया । उसकी सभी चालें व्यर्थ हुईं। उनके युद्ध-कौशल को देखने के लिए मानसरोवर में कोड़ा करने को आई हुई देवियाँ और विद्याधरियाँ एकत्रित हो गई थीं । आर्यपुत्र की विजय पर वे प्रसन्न हुई और उन्होंने आर्यपुत्र पर पुष्प वर्षा की। इसके बाद आर्यपुत्र वहाँ से चले | उधर से विद्याधर- कन्याएँ नन्दन वन में से मानसरोवर की ओर आ रही थीं । ये सुन्दरिये आर्यपुत्र को देख कर मोहित हो गई और कामदेव के अवतार समान आर्यपुत्र को एकटक निरखने लगी । आर्यपुत्र ने इनके निकट आ कर परिचय पूछा । उन्होंने अपना परिचय देते हुए कहा- 40 'विद्याधरों के राजा भानुवेग की हम आठों पुत्रियाँ हैं । हम सब वन-विहार एवं जलक्रीड़ा करने आई हैं । हमारी नगरी निकट ही है । हम पर अनुग्रह कर के आप वहाँ पधारने का कष्ट करें ।" Jain Education International 67 उनके साथ आर्यपुत्र नगरी में आये । विद्याधराधिपति महाराज भानुवेग, अपनी इन पुत्रियों के लिए वर प्राप्त करने की चिंता में ही थे। राजकुमार को देख कर वे अत्यंत प्रसन्न हुए । उनका सत्कार किया। राजा ने समझ लिया कि यह पुरुष महान् भाग्यशाली, पराक्रमी और वीर है । ऐसा उत्तम वर दूसरा कोई हो ही नहीं सकता । राजा ने अपनी आठों पुत्रियों का विवाह उसके साथ कर दिया । वे वहीं रह कर अपनी पत्नियों के साथ सुख भोग में समय बिताने लगे । -- " वह मार खाया हुआ असिताक्ष यक्ष, वैर का डंक लिए हुए अवसर की ताक में लगा हुआ था । जब उसने देखा कि उस पर विजय पाने वाला सुख की नींद सोया हुआ है, तो उसने निद्रित अवस्था में ही आर्यपुत्र का हरण किया और अटवी में जा कर फेंक दिया । जब वे जागे, तो अपने को वन में एकाकी देख कर विस्मित हुए । उन्हें विचार हुआ कि यह परिवर्तन कैसे हुआ ? वे अटवी में इधर-उधर भटकने लगे । थोड़ी देर के बाद अन्हें एक सतखण्डा भव्य भवन दिखाई दिया । उन्होंने सोचा --" क्या यह भी किसी मायावी का कौतुक है ? वे साहस कर के उस भवन के निकट पहुँचे । उनके कानों में किसी स्त्री के रुदन का करुण स्वर सुनाई दिया। आर्यपुत्र के मन 'दया का संचार हुआ । वे उस भवन में चले गये । जब वे ऊपरी मंजिल पर पहुँचे, तो उन्हें देखते ही एक स्त्री २९३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001915
Book TitleTirthankar Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1976
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size8 MB
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