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________________ २९.४ तीर्थङ्कर चरित्र "हे कुरुवंश के तिलक सनत्कुमार ! आप ही मेरे पति होवें," इस प्रकार कहती हुई वह अश्रुपात करती थी । उनका अनुपम रूप और लावण्य देख कर आर्यपुत्र चकित हुए। उन्हें विचार हुआ कि 'यह सुन्दरी मुझे कब से व कैसे पहिचानती है !' वे उसके निकट गए और पूछा-- "भद्रे ! तुम कौन हो ? यहाँ क्यों आई ? तुम्हें किस बात का दुःख है और वह सनत्कुमार कौन है, जिसे तुम याद कर रही हो?" ___ "महानुभाव ! मैं साकेसपुर के अधिपति महाराज सुराष्ट्र की पुत्री हूँ। मेरा नाम 'सुनन्दा' है । कुरुवंश रूपी आकाश में सूर्य के समान और कामदेव से भी अत्यन्त रूपसम्पन्न महाभुज सनत्कुमार, महाराजा अश्वसेन के पुत्र हैं । मैने उन्हें मन से ही अपना पति बनाया है और मेरे माता-पिता ने भी मेरा संकल्प स्वीकार किया है । एक विद्याधर मुझे देख कर मोहित हो गया और उसने मेरा हरण कर लिया। उसमे इस भवन की विकुर्वणा की जौर मुझे इसमें बिठा कर चला गया है। आगे क्या होगा, यह मैं नहीं जानती।" -" सुन्दरी ! तू जिसका स्मरण कर रही है, वह सनत्कुमार मैं ही हूँ। तु अब प्रसन्न हो कर स्वस्थ हो जा । अब तुझे किसी का भय नहीं रखना चाहिए।" रमणी प्रसन्न हो गई । इतने में वजावेग नाम का विद्य धर वहाँ आया और आर्यपुत्र को देख कर क्रोधान्ध बन गया । उसने तत्काल उन्हें पकड़ कर आकाश में उछाल दिया। यह देख कर वह महिला भयभीत हुई और मूच्छित हो कर भूमि पर गिर गई । उधर आर्यपुत्र ने नीचे उतर कर बज्रावेग पर ऐसा मुष्ठि प्रहार किया कि वह प्राण रहित हो गया। विघ्न टल जाने के बाद उस रमणी को सावधान कर के आर्यपुत्र ने वहीं उसका पाणिग्रहण कर लिया । यही सुनन्दा सनतकुमार चक्रवर्ती का 'स्त्री-रत्न' बनी। ___ वज्रवेग की मृत्यु का हाल जान कर उसकी वंध्यावली बहिन, क्रोध एवं शोक से संतप्त हो कर वहाँ आई । किंतु वह ज्ञानियों के इस कथन का स्मरण कर के शांत हो गई कि-"तेरे भाई का बध करने वाला ही तेरा पति होगा।" वह आर्यपुत्र को देखते ही मोहित हो गई । सुनन्दा के अनुरोध पर सनत्कुमार ने उसका भी पाणिग्रहण कर लिया। आर्यपुत्र अपनी दोनों पत्नियों के साथ वार्तालाप कर ही रहे थे कि इतने में दो विद्याधरों ने वहाँ आ कर, आर्यपुत्र को कवचयुक्त महारथ दे कर कहा "आपने वज्रवेग को मार डाला, इसका बदला लेने के लिए उसके पिता अशनिवेग अपनी सेना ले कर आ रहा है। वह स्वयं भी महान योद्धा और विद्याधरों का राजा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001915
Book TitleTirthankar Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1976
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size8 MB
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