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________________ भ० धर्मनाथजी - धर्मदेशना २८१ में चतुर और कापट्ययुक्त बकवृत्ति वाले पापी मनुष्य, जगत् को ठगने के लिये माया का सेवन करते हैं । किन्तु वे स्वयं अपनी आत्मा को ही ठगते हैं । राज्यकर्त्ता, अर्थ-लोभ के लिए खोटे पड्गुण + के योग से, छल-प्रपञ्च और विश्वासघात कर के संसार को ठगते हैं । ब्राह्मण वर्ग, अन्तर से सद्गुण शून्य किन्तु ऊपर से गुणवान् होने का ढोंग कर के और तिलक - मुद्रा, मन्त्र और दीनता बता कर ठगाई करता है । वंश्य वर्ग तो माया का भाजन बन गया है । वह खोटे तोल-नाप से और राज्यकर की चोरी आदि से लोगों को ठगता है । पाखण्डी और नास्तिक लोक जटा, मौंजी, शिखा, भस्म, वल्कल और अग्नि (धुनी) आदि धारण कर के श्रद्धालु मुग्धजनों को ठगते हैं । गणिकाएँ, बिना स्नेह के ही हाव-भाव दिखा कर, लीला, गति और कटाक्ष के द्वारा कामीजनों को मुग्ध कर के ठगती है । धूर्त लोग और जिनकी आजीविका सुखपूर्वक नहीं चलती ऐसे लोग, झूठी शपथ खा कर और खोटे तथा जाली सिक्के से धनवानों को ठगते हैं । स्त्रीपुरुष, पिता-पुत्र, भाई-भाई, मित्र, स्वामी, सेवक और अन्य सभी लोग, एक दूसरे को माया के द्वारा ठगते रहते हैं । www चोर लोग, धन के लिए दिन-रात चौकन्ने रह कर, असावधान लोगों को निर्दयता पूर्वक लूटते हैं । शिल्पी और किसी भी प्रकार की कला के सहारे से आजीविका करने वाले, सीधे और सरल जीवों को भी ठगते रहते हैं । Jain Education International व्यन्तर जैसी हलकी योनि के क्रूर देव, अनेक प्रकार के छल कर के प्रायः प्रमादी पुरुषों तथा पशुओं को दुःखी करते हैं । मत्स्यादि जलचर जीव भी छल से अपने बच्चों का ही भक्षण कर लेते हैं । धीवर लोग उन्हें छलपूर्वक अपनी जाल में फँसा लेते हैं और उनका प्राण हरण कर लेते हैं। शिकारी लोग, अनेक प्रकार के छल से थलचर पशुओं को मार डालते हैं । मांस-लोलुप जीव, लावक आदि कितने ही प्रकार के पक्षियों को पकड़ कर मार डालते हैं और खा जाते हैं । इस प्रकार मायाचारी जीव, मायाचार से अपनी आत्मा को ही ठग कर स्वधर्म और सद्गति का नाश करते हैं । यह माया, तिर्यञ्च जाति में उत्पन्न होने का बीज, मोक्षपुरी + १ संधि २ विग्रह ३ यान ४ आसन ५ द्विधाभाव और ६ समाश्रय - ये राज्यनीति के षड्गुण हैं । * मुंज की रस्सी का कंदोरा । x इसी प्रकार ढोंगी साधु भी सुसाधु का स्वाँग धर कर ठगते हैं। जो जिस रूप में अपने को प्रसिद्ध करता है, वह उसके विपरीत आचरण करे, तो ठग ही है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001915
Book TitleTirthankar Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1976
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size8 MB
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