SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 293
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तीर्थङ्कर चरित्र भूतकाल में प्रथम जिनेश्वर श्री ऋषभदेवजी ने घोर तप किया था और भविष्य में चरम तीर्थाधिपति श्री वीरप्रभु घोर तप करेंगे। उनके तप की उग्रता को जानने वाले को अपने मामूली तप का मद नहीं करना चाहिये । मद-रहित विशुद्ध भाव से तप करने से कर्म टूटते हैं । किंतु तप का मद करने से तो उल्टा कर्म का विशेष संचय और वृद्धि ही होती है । पूर्व के महापुरुषों ने अपने बुद्धि-बल से जिन शास्त्रों की रचना की, उन्हें पढ़ कर जो "मैं सर्वज्ञ हूँ' - इस प्रकार मद करता है, वह तो अपने अंग को ही खाता है * । श्री गणधरों की शास्त्र निर्माण और धारण करने की शक्ति को सुन कर ऐसा कौन श्रवण (कान) और हृदय वाला मनुष्य है, जो अपने किंचित् शास्त्र का मद करे ? दोष रूपी शाखाओं का विस्तार करने वाले और गुणरूपी मूल को नीचे दबाने वाले- ऐसे मान रूपी वृक्ष को मृदुता रूपी नदी की वेगदार बाढ़ से उखड़ कर फेंक देना चाहिए | उद्धता (अवखड़पन ) का निषेध, मृदुता अथवा मार्दवता का स्वरूप है और उद्धतता, मान का स्पष्ट स्वरूप है । २८० जिस समय जाति आदि का उद्धतपन मन में आने लगे, उस समय उसे हटाने के लिए मृदुता का अवलम्बन लेना चाहिए और मृदुता को सर्वत्र बनाए रखना चाहिए, उसमें भी जो पूज्य बर्ग है, उनके प्रति विशेष रूप से मृदुता रहनी चाहिए, क्योंकि पूज्य की पूजा से पाप से मुक्ति होती है। मान के कारण ही बाहुबलिजी, पाप रूपी लता से बन्ध गये थे । वे मृदुता का अवलम्बन करके पाप से मुक्त भी हो गये और केवलज्ञान केवलदर्शन प्राप्त कर लिया । चक्रवर्ती महाराजाधिराज भी चारित्र ले कर और निःसंग हो कर, शत्रुओं के घर भिक्षा मांगने जाते हैं। मान को मूल से उखाड़ फेंकने की उनकी कैसी कठोर मृदुता है ? चक्रवर्ती सम्राट जैसे भी मान का त्याग कर तत्काल के दीक्षित एक रंक साधु को नमन करते हैं और चिरकाल तक उसकी सेवा करते हैं । इस प्रकार मान और उसे दूर करने के विषय को समझ कर, मान को हृदय से निकालने के लिए सदैव मृदुता को धारण करना चाहिए। इसी में बुद्धिमानी है । माया- कषाय का स्वरूप माया, असत्य की माता है । शील (सदाचार) रूपी कल्पवृक्ष को काटने वाली कुल्हाड़ी है और अविद्या की आधार भूमि है । यह दुर्गति में ले जाने वाली है । कुटिलता * गणधर महाराज, मात्र त्रिपदी सुन कर ही समस्त श्रुत- सागर के पारगामी हो जाते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001915
Book TitleTirthankar Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1976
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy