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तीर्थङ्कर चरित्र
और अनन्तानुबन्धी कषाय नरक भव प्रदान करती है * । क्रोध कषाय, आत्मा को तप्त कर देती है । वैर एवं शत्रुता इसी कषाय से होती है । यह दुर्गति में धकेलने वाली है और समता रूपी सुख रोकने वाली है । क्रोध कषाय उत्पन्न होते ही आग की तरह सब से पहले अपने आश्रय स्थल को जलाती हैं । इसके बाद दूसरों को जलाती हैं । कभी वह दूसरों को नहीं भी जलाती, किन्तु अपने आश्रय स्थल को तो जलाती ही रहती है ।
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यह क्रोध रूपी आग, आठ वर्ष कम क्रोड़पूर्व तक पाले हुए संयम और आचरे हुए तप रूपी धन को क्षण भर में जला कर भस्म कर देती है । पूर्व के पुण्य भण्डार में संचित किया हुआ समता रूपी यश, इस क्रोध रूपी विषय के सम्पर्क से तत्काल अछूत - असे ब्य हो जाता है । विचित्र गुणों की धारक ऐसी चारित्र रूपी चित्रशाला क्रोध रूपी धुम्र, अत्यन्त मलिन कर देता है । वैराग्य रूपी शमीपत्र के दोने ( पात्र) में जो समता रूपी रस भरा है, वह क्रोध के द्वारा बने हुए छिद्र में से निकल जाता है ।
वृद्धि पाया हुआ क्रोध, इतना विकराल हो जाता है कि वह बड़े भारी अनर्थ कर Star है | भविष्य काल में द्वैपायन की क्रोध रूपी आग में, अमरापुरी के समान भव्य ऐसी द्वारिका नगरी, ईंधन के समान जल कर नष्ट हो जायगी ।
क्रोधी को अपने क्रोध के निमित्त से जो कार्य सिद्धि होती दिखाई देती है वह फलसिद्धि, क्रोध से सम्बन्धित नहीं है, किन्तु पूर्व जन्म में प्राप्त की हुई पुण्य रूपी लता के फल है ।
जो प्राणी, इस लोक और परलोक तथा स्वार्थ और परार्थं का नाश करने वाले क्रोध को अपने शरीर में स्थान देते हैं, उन्हें बार-बार धिक्कार है ।
क्रोधान्ध पुरुष, माता, पिता, गुरु, सुहृद मित्र, सहोदर और स्त्री की तथा अपनी खुद की आत्मा की भी निर्दयतापूर्वक घात कर देता है । उत्तम पुरुष को ऐसी क्रोध रूपी आग को बुझाने के लिए, संयम रूपी बगीचे में क्षमा रूपी जलधारा का सिंचन करना चाहिए | अपकार करने वाले पुरुष पर उत्पन्न हुए क्रोध को रोकने की दूसरी कोई विधि नहीं है । बह तो सत्त्व के माहात्म्य ( आत्म-शक्ति ) से ही रोकी जा सकती है । अथवा तथा प्रकार की भावना के सहारे से क्रोध के मार्ग को अवरुद्ध किया जा सकता है |
* यह कथन भी अपेक्षापूर्वक है । अन्यथा अनन्तानुबन्धी कषाय वाले देव भी होते है । अभव्य के अनन्तानुबन्धी होती है, परन्तु वह चारों गति में जाता है । उसके परिवर्तित रूप में अन्य चौक भी होते हैं ।
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