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धर्मदेशना
क्रोध कषाय को नष्ट करने की प्रेरणा
संसार में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, इस चतुर्वर्ग में मोक्ष वर्ग का स्थान सर्वोपरि है । इस मोक्ष-वर्ग की प्राप्ति ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूपी तीन रत्नों से होती है । वही ज्ञान मोक्षवर्ग को साधने में समर्थ है जो तत्त्वानुसारी मति - बुद्धि से युक्त है । उस तत्त्वानुसारी मति में श्रद्धा रूपी शक्ति का नाम ' दर्शन रत्न' है और ज्ञान तथा दर्शन युक्त हेय का त्याग कर उपादेय का सेवन करना अर्थात् सावद्य प्रवृत्ति का त्याग करना चारित्र है । आत्मा स्वयं ही ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप है अथवा इसी रूप में शरीर में रहता है । मोह के त्याग से अपनी आत्मा के द्वारा ही जो अपने-आप को ( आत्मा को ) जानता है, वही उसके ज्ञान, दर्शन और चारित्र है । आत्मा ने अज्ञान के द्वारा जिन दुःखों को उत्पन्न किया, उनका निवारण आत्म-ज्ञान के द्वारा ही होता है । जो आत्मज्ञान से रहित है, वह तप करते हुए भी अज्ञान - जनित दुःख का छेदन नहीं कर सकता ।
आत्मा, चैतन्य (ज्ञान) रूप है, किन्तु कर्म के योग से शरीरधारी होता है और जब ध्यान रूपी अग्नि से कर्म रूपी कचरा जल कर नष्ट हो जाता है, तब आत्मा निरंजन -- दोष रहित, परम विशुद्ध-- सिद्ध हो जाती है ।
यह संसार, कषाय और इन्द्रियों से हारे हुए आत्मा के लिए ही है । जिस आत्मा ने कषाय और इन्द्रियों को जीत लिया, वही मुक्त है ।
आत्मा को संसार में भटका कर दुःखी करने वाली कषायें चार हैं--१ क्रोध २ मान ३ माया और ४ लोभ । इन चारों के चार-चार भेद हैं। यथा-- १ संज्वलन २ प्रत्याख्यानी ३ अप्रत्याख्यानी ओर ४ अनन्तानुबन्धी । इनमें से संज्वलन एक पक्ष तक रहती है, प्रत्याख्यानी चार माह तक, अप्रत्याख्यानी वर्ष पर्यन्त और अनन्तानुबन्धी जीवन पर्यंत रहती है +। संज्वलन कषाय, बीतरागता में बाधक होती है । प्रत्याख्यानी कषाय, साधुता को रोकती है, अप्रत्याख्यानी कषाय, श्रावकपन में रुकावट डालती है और अनन्तानुबन्धी कषाय, सम्यग्दृष्टि का घात करती है । इनमें से संज्वलन कषाय देवत्व, प्रत्याख्यानी तिर्यञ्चपन
+ यह कथन व्यवहार दृष्टि से है । अन्यथा प्रज्ञापना पद १८ में चारों कषाय के उदय की स्थिति अन्तर्मुहूर्त की बताई है । संज्वलन की स्थिति देशोनक्रोड़ पूर्व भी होती है - जितनी छठे गुणस्थान की स्थिति है ।
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