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________________ भ० धर्मनाथ जी --धर्मदेवाना २७७ "जो व्यक्ति स्वयं पाप स्वीकार कर के मेरे लिए बाधक बनना चाहता है, वह तो अपने दुष्कृत्य से अशुभ कर्म कर के खुद अपनी ही आत्मा की हिंसा कर रहा है। ऐसे व्यक्ति पर मैं क्यों क्रोध करू ? वह तो स्वयं दया का पात्र है।" "हे आत्मन् ! यदि तू चाहती है कि मेरा बुरा चाहने वाले-मुझे दुःख देने वाले पर में क्रोध करूँ, तो तेरे वास्तविक शत्रु तो खुद के किये हुए कर्म ही हैं । इन्हीं के कारण तुझे दुःख होता हैं । यदि तुझे क्रोध करना ही है, तो अपने कर्म-बन्धन पर ही कर । तू कुत्ते जैसा स्वभाव छोड़ कर सिंह के समान मूल को ही पकड़ । कुत्ता, पत्थर मारने वाले को नहीं पकड़ता, किन्तु पत्थर को काटता है, और सिंह बाण को नहीं पकड़ कर बाण मारने वाले की ही खबर लेना चाहता है। तुझे जो कष्ट या बाधा उत्पन्न करते हैं, वे गुप्तशत्रु तेरे कर्म ही हैं। दूसरे तो कर्म-प्रेरित बाण के समान हैं। इसलिए तुझे कर्म की ही ओर ध्यान दे कर, इस अन्तर्शत्रु को नष्ट करने का प्रयत्न करना चाहिए।" भविष्य काल में होने वाले अंतिम शासनपति भगवान् महावीर, अपने को उपसर्ग करने वाले पापियों को क्षमा प्रदान करेंगे । जो उत्तम पुरुष होते हैं, वे तो ऐसे अवसर के लिए तत्पर रहते हैं। बिना प्रयास के ही स्वयमेव प्राप्त हुई क्षमा को सफल करने के लिए तत्पर रहते हैं। महाप्रलय के भयंकर उपसर्ग से तीन लोक की रक्षा करने में समर्थ-ऐसे महापुरुष भी जब क्षमा को धारण करते हैं, तो तू कदलि के पेड़ के समान अल्प सत्व वाला हो कर भी क्षमा नहीं करता, यह तेरी कैसी बुद्धि है ? यदि तुने पूर्व-जन्म में दुष्कृत्य नहीं किये होते, और शुभ कृत्यों के द्वारा पुण्य का संचय किया होता, तो तुझे आज दुःखी होने का अवसर ही नहीं आता-- कोई भी तुझे दुःखी नहीं करता । इसलिए हे प्राणी! तू अपने प्रमाद की आलोचना कर के क्षमा करने के लिए तत्पर हो जा। तू समझ ले कि क्रोध में अन्ध बने हुए मुनि और प्रचण्ड चाण्डाल में कोई अन्तर नहीं है। इसलिए क्रोध का त्याग कर के शुभ एवं उज्ज्वल बुद्धि को ग्रहण कर । एक महर्षि क्रोधी थे, किंतु कुरगडु क्रोधी नहीं था, तो देवता ने ऋषि को नमस्कार नहीं किया, किंतु कुरगडु को नमस्कार किया और स्तुति की। __यदि कोई मर्म पीड़क वचन कहे, तो विचार करना चाहिए कि-- यदि इसके वचन असत्य हैं, तो क्रोध करने की आवश्यकता ही नहीं, क्योंकि उसकी बात ही झूठी एवं पागलप्रताप है । यदि उसकी बात सही है, तो उन दुर्गुणों को निकाल देना चाहिए। यदि कोई क्रोधित हो कर मारने के लिए आवे, तो हँसना चाहिए और मन में सोचना चाहिए कि-- 'मेरा मरना तो मेरे कर्मों के आधीन है । यह मूर्ख व्यर्थ ही कारण बन रहा है ।' यदि कोई Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.001915
Book TitleTirthankar Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1976
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size8 MB
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