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भ० धर्मनाथजी -- वासुदेव चरित्र
पुष्य नक्षत्र के योग में पुत्र का जन्म हुआ । देवी-देवता और इन्द्रों ने द्रव्य तीर्थंकर भगवान् का जन्मोत्सव किया | यौवन वय प्राप्त होने पर माता-पिता ने आपका विवाह किया । जन्म से ढ़ाई लाख वर्ष व्यतीत होने के बाद पिता के आग्रह से आपका राज्याभिषेक हुआ । पाँच लाख वर्ष तक राज्य का संचालन किया और उसके बाद आपने संसार त्याग कर मोक्ष साधना का विचार किया । अपने कल्प के अनुसार लोकान्तिक देवों ने प्रभु के समीप आकर धर्म-प्रवर्त्तन का निवेदन किया । वार्षिक दान दे कर प्रभु ने माघ शुक्ला त्रयोदशी के दिन चौथे प्रहर में पुष्य नक्षत्र के साथ चन्द्र का योग होते, बेले के तप से प्रव्रज्या स्वीकार की ।
वासुदेव चरित्र
जम्बूद्वीप के पश्चिम विदेह में अशोका नाम की नरीर थी । पुरुषवृषभ नाम का राजा वहाँ राज करता था । उसने संसार से विरक्त हो कर प्रजापालक नाम के मुनिराज के समीप प्रव्रज्या स्वीकार कर ली और चारित्र के साथ उग्र तप करते हुए आयु पूर्ण कर के सहस्रार देवलोक में देवरूप में उत्पन्न हुआ । उसकी आयु अठारह सागरोपम प्रमाण थी । जब उस देव ने अपनी आयु के सोलह सागरोपम पूर्ण कर लिये और दो सागरोपम आयु शेष रही, तब पोतनपुर नगर में विकट नाम का राजा राज करता था । उसे राजसिंह नाम के दूसरे राजा ने युद्ध में हरा दिया। अपनी हार से लज्जित हुए विकट राजा ने अपने पुत्र को राज्याधिकार दे कर अतिभूति नाम के मुनि के पास चारित्र ग्रहण कर लिया और तप-संयम की कठोर साधना करने लगा । वह संयम और तप की उत्कट आराधना तो करता था, किन्तु अपनी पराजय का शूल उसकी आत्मा में चुभ रहा था । उस शुल से प्रेरित हो कर उसने निदान कर लिया कि " मेरे उग्र तप के प्रभाव से मैं अगले भव में उस दुष्ट राजसिंह का घातक बनूँ ।" इस प्रकार अपने उत्तम तप के उच्च फल को, वैर लेने के पापपूर्ण दाँव पर लगा दिया और उसी शल्य को लिये हुए मृत्यु पा कर दूसरे देवलोक में दो सागर की स्थिति वाला देव हुआ । उधर राजसिंह भी चिरकाल तक संसार परिभ्रमण करता हुआ और पाप का फल भोगता हुआ भरत क्षेत्र के हरीपुर नगर में जन्म ले कर 'निशुंभ' नाम का राजा हुआ। वह अपने क्रूरतापूर्ण उग्र पराक्रम से दूसरे राजाओं का राज्य जीतता हुआ दक्षिण भरत का स्वामी बन गया ।
भरतखंड के अश्वपुर नाम के नगर में 'शिव' नाम के राजा राज करते थे । उनके
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