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भ० धर्मनाथजी
धातकी खंड द्वीप के पूर्व महाविदेह में भरत नाम के विजय में भद्दिल नाम का एक नगर था। दृढ़रथ नाम का राजा वहाँ का अधिपति था । वह अन्य सभी राजाओं में प्रभावशाली था और सभी पर अपना अधिपत्य रखता था। इस प्रकार विशाल अधिपत्य एवं विशिष्ट सम्पदा युक्त होते हुए भी वह लुब्ध नहीं था। वह सम्पत्ति और अधिकार के गर्व से रहित था। उच्चकोटि की भोग-सामग्री प्राप्त होते हुए भी वह विरक्त-सा हो गया था। उसकी विरक्ति बढ़ रही थी। संयोग पा कर उसने विमलवाहन मुनिराज के समीप, मुनि दीक्षा ग्रहण कर ली । चारित्र और तप की उत्तम आचरणा से तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन कर लिया और धर्म आराधना करता हुआ अनशनपूर्वक आय पूर्ण कर के वैजयंत नाम के अनुत्तर विमान में महान ऋद्धि सम्पन्न देव हुआ।
इस जम्बूद्वीप के भरत-क्षेत्र में रत्नपुर नाम का एक नगर था। वह अत्यंत ऋद्धि सम्पन्न और भव्यता युक्त था। 'भानु' नाम के महाराजा का उस पर शासन था। महाराजा भानु नरेश सदाचारी थे। वे अनेक उत्तम गुणों के पात्र थे। दूर-दूर तक के अनेक राजागण उनकी आज्ञा में थे। उनका शासन सभी के लिए हितकारी, सुखकारी और संतोषप्रद था । महारानी सुव्रतादेवी उनकी अर्धांगना थी । वह भी नारी के समस्त उत्तम गुणों से युक्त थी।
दृढ़रथ मुनिराज का जीव, वैजयंत विमान से वैशाख-शुक्ला सप्तमी को पुष्य नक्षत्र में च्यव कर महारानी सुव्रता देवी की कुक्षि में उत्पन्न हुआ और माघ-शुक्ला तृतीया को
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