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थ० अनंतनाथजी - धर्मदेशना
संस्थान, अन्धकार, आतम, उद्योत, प्रभा और छाया के रूप में परिणत हो जाते हैं । वे ज्ञानावरणीय आदि आठ प्रकार के कर्म, औदारिक आदि पाँच प्रकार के शरीर, मन, भाषा गमनादि चेष्टा और श्वासोच्छ्वास रूप बनते हैं । सुख, दुःख जीवित और मृत्यु रूप उपग्रह करने वाला है ।
धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय, ये तीनों एक-एक द्रव्य हैं । ये सदा सर्वदा अमूर्त, निष्क्रिय और स्थिर हैं । धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय के प्रदेश एक जीव के आत्म- प्रदेश जितने असंख्यात हैं और समस्त लोक में व्याप्त हैं ।
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धर्मास्तिकाय में गमन सहायक गुण है । जो जीव या अजीव, अपने आप गमन करते हैं, उन्हें धर्मास्तिकाय सहायक बनती है । जिस प्रकार मत्स्य आदि जीवों की गमन करने में पानी सहायक बनता है । वे पानी के आधार से चलते हैं, उसी प्रकार धर्मास्तिकाय भी गति करने में सहायक बनती है ।
अर्धास्तिकाय स्थिर होने में सहायक बनती है । जिस प्रकार थका हुआ पथिक, वृक्ष की शीतल छाया ठहर कर विश्राम लेता है, उसी प्रकार स्थिर होने की इच्छा वाले जीवों और गमन क्रिया से रहित अजीवों को ठहरने में सहायक होना, अधर्मास्तिकाय नामक अरूपी द्रव्य का गुण है ।
आकाशास्तिकाय तो पूर्वोक्त दोनों द्रव्यों से अत्यन्त विशाल है । धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय तो लोक में ही व्याप्त है, किन्तु आकाशास्तिकाय तो लोक से भी अनन्तगुण अधिक ऐसे अलोक में भी सर्व व्यापक हैं । इसके अनन्त प्रदेश हैं । यह आकाशास्तिकाय सभी द्रयों के लिए आधार रूप है और अपने निज स्वरूप में रहा हुआ है ।
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लोकाकाश के प्रदेशों में अभिन्न रूप से रहे हुए जो काल के अणु ( समय रूपी सूक्ष्म भेद) हैं, वे भावों का परिवर्तन करते हैं । इसलिए मुख्य रूप से काल तो यही है, क्योंकि पर्याय- परिवर्तन ( भविष्य का वर्तमान होना और वर्तमान का भूत बन जाना ) ही काल है और ज्योतिष शास्त्र में समय आदि से जो मान ( क्षण, पल, घड़ी, मुहूर्त आदि) बताया जाता है, वह व्यवहार काल है । संसार में सभी पदार्थ नवीन और जीर्ण अवस्था को प्राप्त करते हैं । यह काल का ही प्रभाव है । काल-क्रीड़ा की विडम्बना से ही सभी पदार्थ वर्त्तमान अवस्था से गिर कर भूत अवस्था को प्राप्त हो जाते हैं, और भविष्य से खिंच कर वर्तमान में आ जाते हैं ।
आस्रव - जीव के मन, वचन और काया की प्रवृत्ति ही आस्रव है । क्योंकि इसी से
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