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तीर्थङ्कर चरित्र
(१०) नौवें गुणस्थान में जो लोभ की सूक्ष्म प्रकृति शेष रह गई थी, उसका वेदन इस गुणस्थान में होता है । इसके अंत लोभ को या तो सर्वथा उपशांत कर दिया जाता है या क्षय होता है ।
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(११) उपशांत- मोह वीतराग गुणस्थान । इस परिणति वाली आत्मा का मोह - कर्म पूर्ण रूप से दब जाता है ।
(१२) जिसने दसवें गुणस्थान के अंतिम समय में लोभ ( मोह) का सर्वथा क्षय कर दिया, वह दसवें से सीधा इस गुणस्थान में पहुँच कर ' क्षीण मोह वीतराग' हो जाता है । (१३) क्षीण - मोह गुणस्थान के अंतिम समय में शेष तीन घाती - कर्मों का क्षय कर के केवलज्ञान - केवलदर्शन प्राप्त कर आत्मा सयोगी-केवली अवस्था प्राप्त कर लेती है । इस उत्तम स्थिति में आत्मा सर्वज्ञ - सर्वदर्शी भगवान् हो जाती है ।
(१४) अयोगी - केवली गुणस्थान --सयोगी केवली भगवान् मन, वचन और काया के योगों का निरोध कर के नष्ट करने के बाद अयोगी केवली हो जाते हैं और शैलेशीकरण कर के सिद्ध भगवान् बन जाते हैं ।
इस प्रकार निम्नतम दशा से उत्थान हो कर गुणस्थान बढ़ते-बढ़ते आत्मा, परमात्मदशा को प्राप्त कर लेती है ।
अजीव तत्त्व --- द्रव्य छह हैं । इनमें से जीव द्रव्य का निरूपण हो चुका। शेष पाँच द्रव्य 'अजीव ' — जड़ हैं । यथा -- १ धर्मास्तिकाय २ अधर्मास्तिकाय ३ आकाशास्तिकाय ४ पुद्गलास्तिकाय और ५ काल । इन छह द्रव्यों में से काल को छोड़ कर शेष पाँच द्रव्य तो प्रदेशों (सूक्ष्म-विभागों ) के समूह रूप हैं और काल प्रदेश - रहित है। इनमें से केवल जीव ही चैतन्य ( उपयोग ) युक्त और कर्त्ता है, शेष पाँच द्रव्य अचेतन तथा अकर्त्ता हैं । काल को छोड़ कर शेष पाँच द्रव्य अस्तिकाय ( प्रदेशों के समूह रूप ) हैं । इनमें से एक पुद्गल द्रव्य ही रूपी है, शेष पांच द्रव्य अरूपी हैं । ये छहों द्रव्य उत्पाद ( नवीन अवस्था की उत्पत्ति) व्यय ( भूत पर्याय का नाश ) और ध्रौव्य ( द्रव्य रूप से सदाकाल विद्यमान ) रूप है ।
सभी प्रकार के पुद्गल स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण युक्त हैं । इनके परमाणु और स्कन्ध ऐसे दो भेद हैं । जो परमाणु रूप हैं, वे तो अबद्ध हैं और जो स्कन्ध रूप हैं, वे बद्ध ( परस्पर बँधे हुए) हैं ।
पुद्गल के जो बँधे हुए स्कन्ध हैं, वे वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, शब्द, सूक्ष्म, स्थूल,
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