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________________ भ० अनंतनाथजी--धर्मदेशना २६५ स्थान के स्वामी होते हैं । इस स्थान पर सूक्ष्मतम प्रमाद भी नहीं होता। छठे और सातवें गुणस्थान की परस्पर परावृत्ति अन्तर्मुहूर्त की स्थिति है । (८) अपूर्वकरण गुणस्थान-इस गुणस्थान को प्राप्त करने वाली ऊर्ध्वमुखी आत्मा के कर्मों का स्थितिघात आदि अपूर्व होता है। इस प्रकार की अवस्था आत्मा ने पहले कभी प्राप्त नहीं की। इस स्थिति को प्राप्त होने वाली आत्मा, अपने कर्म-शत्रुओं का संहार करती हुई आगे बढ़ने की तय्यारी करती है । ___ इस गुणस्थान में आत्मा, श्रेणी का आरोहण करने की तय्यारी करती है। कोई 'उपशम श्रेणी' के लिए तत्पर होती है, तो कोई 'क्षपक श्रेणी' के लिए + । इस स्थिति पर पहुँचने वालों की बादर-कषाय निवृत्त हो जाती है । इसलिए इस गुणस्थान का नाम "निवृत्ति-बादर" भी है। (६) जिस परिणाम पर एक साथ पहुंचे हुए मुनिवरों के बादर-कषाय के निवृत्त परिणाम में अन्तर या परिवर्तन नहीं होता, सभी के परिणाम समान ही होते हैं, उसे "निवृत्ति-बादर" गुणस्थान कहते हैं । इस गुणस्थान पर पहुँचे हुए महात्मा या तो उपशमक होते हैं या क्षपक । इस गुणस्थान में मोहनीय कर्म की एक संज्वलन के लोभ की सूक्ष्म प्रकृति के अतिरिक्त कोई भी प्रकृति उदय में नहीं रहती। ___ * यों तो छठे गुणस्थान की उत्कृष्ट स्थिति देशोन पूर्वकोटि तक की है, किन्तु अप्रमत्त महर्षि सातवें गुणस्थान में अन्तर्मुहूर्त तक ही रह सकते हैं, क्योंकि इसकी स्थिति ही इतनी है। इसके बाद वे प्रमत्त गुणस्थान में आते हैं, किन्तु भावों की उच्चता के कारश छठे गुणस्थान में अन्तर्मुहुर्त रह कर पुनः सातवें में पहुँच जाते हैं । इस प्रकार चढ़ाव-उतार की दृष्टि से दोनों गुणस्थान अन्तर्मुहूर्त के बताये गये है। ___- अपूर्वकरण, प्रथम गुणस्थान में भी होता है, किन्तु उससे दर्शन-मोहनीय कर्म और अनन्तानुबन्धी कषाय चोक का ही सम्बन्ध है । इसके बाद भी मोहनीय कर्म की २१ प्रकृतियाँ शेष रहती है। आठवें गणस्थान में मोहनीय का समूल नाश करने की तत्परता होती है। आयुष्य का बन्ध हो जाने के बाद भी प्रथम गणस्थान वाले जीव को व आठवें के उपशमक को अपूर्वकरण हो सकता है, किन्तु जो जीव क्षपक-श्रेणी का आरम्भ करता है, वह तो अबद्धायु ही होता है । वह समस्त कर्मों से मुक्त हो कर सिद्ध ही होता है। +क्षपक-श्रेणी प्राप्त आत्मा, कर्मों को क्षय करती जाती है और उपशम-श्रेणी वाली आत्मा मोह कर्म को दबाती जाती है। क्षपक-श्रेणी तो एक ही बार होती है, किन्तु उपशम-श्रेणी किसी आत्मा को परे भवचक्र में पांच बार तक हो जाती है। क्षपक-श्रेणी वालों की अपेक्षा इस गुणस्थान को 'अपूर्वकरण' कहना ठीक ही है, किन्तु उपशम-श्रेणी की अपेक्षा 'अपूर्वकरण' कहने में मतभेद है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001915
Book TitleTirthankar Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1976
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size8 MB
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