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________________ २६४ तीर्थङ्कर चरित्र विरत ६ प्रमत्त-संयत ७ अप्रमत्त-संयत ८ निवृत्ति-बादर ९ अनिवृत्ति-बादर १० सूक्ष्म-संपराय ११ उपशांतमोह १२ क्षीणमोह १३ सयोगी केवली और १४ अयोगी केवली गुणस्थान । ये गुणस्थानों के नाम हैं। अब इनका संक्षेप में स्वरूप बताया जाता है। गुणस्थान स्वरूप (१) मिथ्यात्व के उदय से जीव मिथ्यादृष्टि होता है । मिथ्यात्व कोई गुण नहीं, किन्तु मिथ्यात्व होते हुए भी भद्रिकपन आदि (संतोष, सरलता और यथाप्रवृत्तिकरण से ग्रंथीभेद तक पहुँचना और इससे आगे बढ़ कर अपूर्वकरण अवस्था को प्राप्त करने रूप)गुणों की अपेक्षा से गुणस्थान कहा जाता है । तात्पर्य यह कि इस स्थान को मिथ्यात्व के कारण गुणस्थान नहीं कहा, किन्तु इस स्थान में रहे हुए अन्य गुणों के कारण गुणस्थान कहा है । (२) अनन्तानुबन्धी कषाय-चौक का उदय होते हुए भी मिथ्यात्व का उदय नहीं होने के कारण दूसरे गुणस्थान को ‘सास्वादन सम्यग्दृष्टि' गुणस्थान कहते हैं । इसकी स्थिति अधिक से अधिक छह आवलिका की है । इस स्थिति में नष्ट होते हुए सम्यक्त्व का तनिक आस्वाद रहता है । इसी के कारण यह गुणस्थान है। (३) सम्यक्त्व और मिथ्यात्व के मिश्रण से यह मिश्र गुणस्थान कहलाता है । इसकी स्थिति अन्तर्मुहूर्त मात्र की है। (४) अनन्तानुबन्धी कषाय-चौक और मिथ्यात्व-मोहनीय, मिश्र-मोहनीय के क्षयोपशमादि से आत्मा यथार्थदष्टि प्राप्त करती है। इस गणस्थान में अप्रत्याख्यानावरण कषायचौक का उदय रहता है, जिसके कारण त्याग-प्रत्याख्यान नहीं होते । अनन्तानुबन्धी कषाय के क्षय, उपशम या क्षयोपशम से यह 'अविरत सम्यग्दृष्टि' गुणस्थान होता है । (५) अप्रत्याख्यानावरण कषाय के क्षयोपशमादि से और प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से विरताविरत (देश-विरत) गुणस्थान होता है । (इस गुणस्थान का स्वामी सद्गृहस्थ, संसार में रहते हुए और उदयानुसार सांसारिक कृत्य तथा भोगादि का आस्वाद करते हुए भी संसार-भीरु होता है और निवृत्ति = सर्वविरति को ही उपादेय मानता है।) (६) इस गुणस्थान का स्वामी सर्वविरत संयत होते हुए भी प्रमाद से सर्वथा वञ्चित नहीं रह सकता । पूर्व के गुणस्थानों जितना तो नहीं, किन्तु कुछ प्रमाद का असर अवश्य रहता है इस गुणस्थान का ऐसा ही स्वभाव है। (७) प्रमाद का सर्वथा त्याग करने वाले सर्वविरत संयत महापुरुष, सातवें गुण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001915
Book TitleTirthankar Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1976
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size8 MB
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