SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 276
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भ० अनंतनाथजी -- धर्मदेशना ४ स्पर्शनेन्द्रिय, ये चार प्राण तो सभी संसारी जीवों के होते हैं । ( एकेन्द्रिय जीवों में ये चार प्राण ही हैं ) बेइन्द्रिय में १ रसेन्द्रिय और २ वचन मिल कर ६ प्राण होते हैं । तेइन्द्रिय में घ्राण विशेष होने से ७, चौरीन्द्रिय में रसनाइन्द्रिय सहित ८, असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च में श्रोतेन्द्रिय सहित ९ प्राण होते हैं । ये सभी असंज्ञी जीव हैं । संज्ञी जीवों के विशेष में 'मन' भी होता है । इस प्रकार उनके पूर्ण रूप से १० प्राण होते हैं । २६३ नारकों का कुंभी से और देवों का शय्या में से उपपात के रूप में उत्पत्ति होती है । मनुष्यों की उत्पत्ति माता के गर्भ से होती है । तिर्यंच, जरायु और अंडे से उत्पन्न होते हैं और शेष असंज्ञी पंचेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और एकेन्द्रिय जीव, समूच्छिम रूप से उत्पन्न होते हैं। सभी समूच्छिम जीव और नारक जीव, नपुंसक ही होते हैं । देव, पुरुष तथा स्त्री वेदी होते हैं और मनुष्यतातिर्थंच, पुरुष स्त्री और नपुंसकवेदी होते हैं । सभी जीव व्यवहारी और अव्यवहारी -- ऐसे दो प्रकार के हैं । अनादि सूक्ष्म- निगोद के जीव अव्यवहारी ( अव्यवहार राशि वाले, जो अनादि काल से उसी रूप में जन्म-मरण करते रहते हैं । वे उस दशा को छोड़ कर किसी दूसरे स्थान गये ही नहीं ) हैं । शेष सभी व्यवहारी ( व्यवहार राशि वाले -- विभिन्न गतियों में जाने वाले ) हैं । जीवों की उत्पत्ति नौ प्रकार की योनियों से होती हैं । १ सचित्त ( जीव वाली ) २ अचित्त ३ मिश्र ४ संवृत्त ( ढँकी हुई ) ५ असंवृत्त ६ संवृत्तासंवृत्त ७ शीत ८ उष्ण और ९ शीतोष्ण । पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाय और वायुकाय, इन चार स्थावर में प्रत्येक की सात लाख योनि हैं । प्रत्येक वनस्पतिकाय की दस लाख और अनन्तकाय की चौदह लाख हैं । विकलेन्द्रिय की छह लाख ( प्रत्येक की दो-दो लाख) मनुष्य की चौदह लाख तथा नारक, देव और तिर्यंच पंचेन्द्रिय की चार-चार लाख योनि हैं । इस प्रकार सभी जीवों को मिल कर कुल चोरासी लाख योनियाँ हैं । इन्हें केवलज्ञानियों ने ज्ञान में देखा है । Jain Education International जीवों के भेद - १ एकेन्द्रिय सूक्ष्म और २ बादर ३ बेइन्द्रिय ४ तेइन्द्रिय ५ चौरीन्द्रिय ६ पंचेन्द्रिय असंज्ञी और ७ संज्ञी । इन सात के प्रर्याप्त और अपर्याप्त -- ऐसे मूल चौदह भेद हैं। इनकी मार्गणा भी चौदह हैं । जैसे - १ गति २ इन्द्रिय ३ काय ४ योग ५ वेद ६ ज्ञान ७ कषाय ८ संयम ९ आहार १० दृष्टि ११ लेश्या १२ भव्य १३ सम्यक्त्व और १४ संज्ञी । इसी प्रकार सभी जीवों के गुणस्थान भी चौदह ही हैं । यथा-१ मिथ्यात्व गुणस्थान २ सास्वादन गुणस्थान ३ मिश्र ४ अविरत सम्यग्दृष्टि ५ देश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001915
Book TitleTirthankar Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1976
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy