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तीर्थंकर चरित्र
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आत्मा में कर्म का आगमन होता है । शुभ प्रवृत्ति 'पुण्य-बन्ध' का कारण होती है और
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अशुभ प्रवृत्ति पाप बन्ध' का हेतु बनती है ।
संवर-- सभी प्रकार के आस्रवों की रोक करना ही 'संवर' कहलाता है, जो विरति एवं त्याग रूप है ।
निर्जरा -- संसार के हेतुभूत कर्म का जिस साधना से जरना ( विनाश) होता है, उसे 'निर्जरा' कहते हैं ।
बन्ध—–कषाय के सद्भाव से जीव, कर्म योग्य पुद्गलों को आस्रव के द्वारा ग्रहण कर के अपने साथ बाँध लेता है, उसे 'बन्ध' तत्त्व कहते हैं । यह बन्ध तत्त्व ही जीव की परतन्त्रता का कारण बनता है। इसके चार भेद हैं; ; - १ प्रकृति २ स्थिति ३ अनुभाग और ४ प्रदेश |
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प्रकृति का अर्थ ' स्वभाव' है । इसके ज्ञानावरणीयादि भद से आठ प्रकार हैं । जैसे - १ ज्ञानावरणीय २ दर्शनावरणीय ३ वेदनीय ४ मोहनीय ५ आयु ६ नाम ७ गोत्र और ८ अन्तराय 1 मे आठ मूल प्रकृतियाँ ( इनकी उत्तर प्रकृतियाँ १४८ हैं ) ।
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स्थिति — बन्धे हुए कर्म- पुद्गलों का आत्मा के साथ लगे रहने के काल को 'स्थिति' कहते हैं । जो जघन्य (कम से कम ) भी होती है और उत्कृष्ट ( अधिक से अधिक ) भी । अनुभाव -- कर्म का विपाक ( परिणाम ) 'अनुभाग' कहलाता है । प्रदेश -- कर्म के दलिक ( अंश ) को ' प्रदेश' कहते हैं ।
कर्म बन्ध के पाँच हेतु हैं- मिध्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ।
मोक्ष - बन्ध के मिथ्यात्वादि पाँच हेतुओं का अभाव हो जाने पर, घातिकर्मों (ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय) का क्षय हो जाता है इससे जीव को केवलज्ञान की प्राप्ति होती है । इसके बाद शेष रहे हुए चार अघाती - कर्मों का क्षय होने से जीव मुक्त हो कर परम सुखी हो जाता है ।
सभी राजाओं, नरेन्द्रों, देवों और इन्द्रों को तीन भुवन में जो सुख प्राप्त हैं, वे मोक्ष-सुख के अनन्तवें भाग में भी नहीं हैं ।
इस प्रकार तत्त्वों को यथार्थ रूप में जानने वाला मनुष्य, कभी नहीं डूबता और सम्यग् आचरणा से कर्म - बन्धनों से मुक्त हो कर परम सुखी तत्त्व का यथार्थ ज्ञान प्राप्त कर के उस पर श्रद्धा करनी चाहिए और कर उपादेय का आचरण करना चहिए । इससे आत्मा मोक्ष-गति पा कर परमात्मा बन
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संसार - सागर में बन जाता है । हेय को त्याग
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