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________________ भ० ऋषभदेवजी--प्रव्रज्या ग्रहण और स्वर्ग गमन आसक्त हो कर आर्तध्यान युक्त मृत्यु पाया और भयंकर अजगर हुआ । वह अपने राज्यभण्डार में रहने लगा। जो भी व्यक्ति भंडार में पहुँचता, उसे वह क्रुद्ध अजगर निगल जाता। एक बार 'मणिमाली' भण्डार में गया। उसे देख कर अजगर को स्नेह उत्पन्न हुआ। विचार में मग्न होते पूर्वजन्म का स्मरण हुआ और अपना पुत्र जान कर शान्तिपूर्वक उसे निरखने लगा। मणिमाली ने भी समझा कि यह मेरा पूर्वजन्म का संबंधी है। उसने ज्ञानी महात्मा से पूछ कर जान लिया कि वह अजगर उसके पिता का जीव ही है। मणिमाली ने अजगर को धर्म सुनाया। अजगर संवेग भाव में रहने लगा और शभध्यान से आयष्य पुर्ण कर के स्वर्ग में गया । उस देव ने पुत्र-प्रेम से प्रेरित हो कर एक दिव्य मुक्ताहार मणिमाली को अर्पण किया । वही हार आपके वक्षस्थल पर अभी भी शोभा पा रहा है । आप महाराज हरिश्चन्द्र के वंशज हैं और मैं सुवद्धि श्रावक का वंशज हूँ। मेरे पूर्वज के समान में भी आपको धर्म की प्रेरणा करता हूँ। मैने आज नन्दन वन में दो चारण मुनियों को देखा और आपके आयुष्य के विषय में पूछा । उन्होंने आपका आयुष्य मात्र एक महीने का ही बताया है । इसलिए आपको अभी ही धर्म आराधना करनी चाहिए। आपके लिए यह अवसर चूकने का नहीं है । स्वयंबद्ध के द्वारा अपना आयुष्य एक मास का जान कर राजा चौंक उठा। उसने स्वयंबुद्ध का उपकार मानते हुए कहा--" हे मित्र ! हे अद्वितीय भ्रात ! तुम मेरे परम उपकारी हो और सदैव मेरे हित की बात ही सोचा करते हो। तुमने मोह नींद में बे-भान बने हुए और विषयों की सेना से दबे हुए मुझ पामर को जगाया, सावधान किया। अब तुम्ही बताओ कि इस अल्पकाल में मैं क्या करूँ, किस प्रकार धर्म की आराधना करूँ ?" "महाराज ! घबराइये नहीं, स्वस्थ रह कर श्रमण-धर्म का पालन कीजिए । एक दिन का धर्म-पालन भी मुक्ति दे सकता है, तो स्वर्ग प्राप्ति कितनी दूर है ? प्रव्रज्या ग्रहण और स्वर्गगमन महाबल नरेश ने पूत्र को राज्यभार दिया और दीन-अनाथजनों को भरपूर अनकम्पादान दिया ---इतना कि उन्हें जीवन में कभी माँगने की आवश्यकता ही नहीं पड़े। स्वजनों और परिजनों से क्षमा याच कर मुनीन्द्र के पास सर्वसावध योग का त्याग कर के अनशन कर लिया और समाधिभाव में स्थिर रह कर २२ दिन के चतुर्विध आहार त्यागरूपी अनशन का पालन कर और नमस्कार मन्त्र के स्मरणपूर्वक देह त्याग कर दूसरे स्वर्ग के 'श्रीप्रभ' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001915
Book TitleTirthankar Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1976
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size8 MB
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