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तीर्थंकर चरित्र
किया । मैं उस प्रसंग को भूल ही गया था । अब मैं परलोक को मान्य करता हूँ। अब मुझे आपके धर्म-वचनों में कुछ भी शंका नहीं रही।"
___ राजा के ऐसे आस्तिकता पूर्ण वचन सुन कर स्वयंबुद्ध मन्त्री हर्षित हुआ और कहने लगा;--
“महाराज ! आपके वंश में पहले कुरुचन्द्र नाम का एक राजा हो गया है । उसके कुरुपती नाम की रानी और हरिश्चन्द्र नाम का पुत्र था । कुरुचन्द्र राजा महापापी, महाआरंभी, महापरिग्रही, अनार्य, निर्दय, दुराचारी और भयंकर था। उसने बहुत वर्षों तक राज भोगा, किंतु मरते समय धातु-विकृति के रोग से वह नरक के समान दुःख भोगने लगा। उसे रुई के नरम गदेले आदि काँटों की शय्या से भी अति तीक्ष्ण लगने लगे। सरस भोजन बिलकुल निरस, कडुआ, सुगन्धित पदार्थ दुर्गन्ध रूप और स्त्री-पुत्र आदि स्वजन भी शत्रु के समान लगने लगे। उसकी प्रकृति ही विपरीत और महा दुःखदायक हो गई थी । अन्त में वह दाहज्वर से पीड़ित हो कर रौद्र-ध्यानपूर्वक मृत्यू पा कर दुर्गति में गया।"
__ कुरुचन्द्र की मृत्यु के बाद हरिश्चन्द्र राजा हुआ। उसने अपने पिता के पाप का फल प्रत्यक्ष देख लिया था। इसलिए वह पाप से विमुख हो कर धर्म के अभिमुख हुआ। उसने अपने सुबुद्धि नाम के श्रावक मित्र से कहा--" मित्र! तुम्हारा कर्तव्य है कि तुम धर्मोपदेश सुन कर मेरे पास आओ और रोज मुझे सुनाया करो।" इस प्रकार पाप से भयभीत हुआ राजा धर्म के प्रति प्रीतिवाम् हो कर धर्म सुनने लगा और श्रद्धा रखने लगा।
कालान्तर में नगर के बाहर उद्यान में, शीलन्धर नाम के महा मुनि को केवलज्ञान उत्पन्न हआ। देवगण केवलज्ञानी महात्मा के पास जाने लगे। सुबुद्धि श्रावक, अपने मित्र महाराज हरिश्चन्द्र को भी केवलज्ञानी भगवान् के पास ले गया। धर्मोपदेश सुन कर राजा संतुष्ट हुआ । उसने केवली भगवान् से पूछा; -
"भगवन् ! मेरा पिता मर कर किस गति में गया ?" "राजन् ! सातवीं नरक में गया।"
राजा विरक्त हुआ और पुत्र को राज्यभार सौंप कर, सबुद्धि श्रावक के साथ भगवान के पास प्रवजित हुआ और चारित्र पाल कर सिद्ध गति को प्राप्त हुआ।
स्वयंबद्ध प्रधान आगे कहने लगा ;
।। महाराज ! आपके वंश में एक ‘दंडक' नाम का राजा हुआ था। उसका शासन प्रचण्ड था। शत्रओं के लिए वह यमराज के समान था । उसके 'मणिमाली' नाम का पत्र था। वह सूर्य के समान तेजस्वी था। दंडक राजा, स्त्री, पुत्र, स्वर्ण, रत्न आदि में
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