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________________ भ० ऋषभदेवजी--अमियों से विवाद का कार्यकारण भाव सत्य नहीं है, तो दुष्ट द्वारा आक्रमण का भय भी नहीं होना चाहिए और “में” "तुम" "वे" आदि वाच्य-वाचक भी नहीं होना चाहिए और व्यापार-व्यवसाय और सेवा आदि व्यवहार का फल भी नहीं मिलना चाहिए ? जब समस्त व्यवहार मिथ्या है और सब माया ही माया है, तो माया के पक्षकार को तो व्यवहारों से मुक्त ही रहना चाहिए ?" “महाराज ! यह सब वितण्डावाद है और विषयाभिलाषा के पोषण की मिथ्या युक्तियें हैं । आपको इस पर स्वयं सोचना चाहिए और विवेक के द्वारा विषयों का त्याग कर के धर्म का आश्रय लेना और भविष्य सुधारना चाहिए।" मन्त्रियों के भिन्न-भिन्न मतों को जान कर अपने निर्णय के स्वर में महाराज महाबल ने कहा;-- "महाबुद्धि स्वयंबुद्धजी ! आपने बहुत ही सुन्दर और हितकारक उपदेश दिया। आपका उपदेश यथार्थ है । मैं धर्म-द्वेषी नहीं हूँ। परन्तु धर्म का पालन भी यथावसर ही होना चाहिए । वर्तमान में मित्र के समान प्राप्त यौवन की उपेक्षा करना उचित नहीं है। आपका उपदेश यथार्थ होते हुए भी असमय हुआ है। जब वीणा का मधुर स्वर चल रहा हो, तब उपदेश की धारा व्यर्थ ही नहीं, अशोभनीय लगती हैं। धर्म का परलोक में मिलने वाला फल निःसन्देह नहीं है। इसलिए आपका इस लोक में प्राप्त सुखभोग का निषेध करना उचित नहीं लगता।" महाराज के वचन सुन कर स्वयंबुद्ध विनयपूर्वक कहने लगा; -- "महाराज ! धर्म के फल में कभी भी सन्देह नहीं करना चाहिए। आपको याद ही होगा कि जब आप बालक थे, तब एक दिन अपन नन्दन वन में गये थे। वहाँ हमने एक सुन्दर और कान्तिवान् देव को देखा था। उस देव ने आपको कहा था कि-- __ "वत्स ! मैं अतिबल नाम का तेरा पितामह हूँ। मैं संसार और विषय-सुख से निर्वेद पा कर निग्रंथ हो गया था और आराधक हो कर लांतक स्वर्ग का अधिपति देव हुआ हूँ। इसलिए तुम भी विषयों से विरक्त हो कर धर्म का आश्रय लो।" इस प्रकार कह कर वह देव अन्तर्धान हो गया था। इसलिए हे महाराज ! आप अपने पितामह की उस वाणी का स्मरण कर के परलोक में विश्वास करें। उस प्रत्यक्ष प्रमाण के आगे आपके सामने अन्य प्रमाण उपस्थित करने की आवश्यकता नहीं रहती। " मन्त्रीवर ! आपने मुझे पितामह के वचन का स्मरण करा कर बहुत अच्छा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001915
Book TitleTirthankar Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1976
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size8 MB
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