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तीर्थंकर चरित्र
नाम के विमान में उत्पन्न हुए । उनकी दिव्य आकृति, सप्तधातुओं (हाड़, मांस, रक्तादि) से रहित शरीर, समचतुरस्र संस्थान, शिरीष पुष्प जैसी सुकोमलता, दिव्य कांति और वज्र के समान काया थी। वैक्रिय-लब्धि होने के कारण वे इच्छानुसार शरीर बना सकते थे। वे अवधिज्ञान से युक्त थे और अणिमादि आठ सिद्धि के स्वामी थे। उनका देव नाम 'ललितांग' था।
ज्योंहि ललितांग देव, देवशय्या में उत्पन्न हुआ त्योंही जयजयकार होने लगा। देव दंदुभि और वादिन्त्र बजने लगे । ललितांग देव चकित हो गया। वह सोचने लगा--" यह स्वप्न तो नहीं है ? मायाजाल तो नहीं है ? यहाँ के लोग मेरे प्रति इतने विनीत और स्वामी-भाव से मेरे प्रति क्यों बरत रहे हैं ? इस लक्ष्मी के धाम और आनन्द के मन्दिर रूप स्थान में मैं कैसे आ गया ?" इस प्रकार वह सोच ही रहा था कि प्रतिहार ने हाथ जोड़ कर नम्रतापूर्वक निवेदन किया--
"हे स्वामी ! आपको स्वामी रूप में प्राप्त कर के हम धन्य हुए हैं। अनाथ से सनाथ हुए हैं । आप हम पर अपनी कृपा दृष्टि बरसावें। स्वामिन् ! यह ईशान देवलोक है। आपने अपने पुण्ययोग से इस श्रीप्रभ विमान का स्वामित्व प्राप्त किया है। आपकी सभा को शोभायमान करने वाले ये आपके सामानिक देव हैं । ये तेतीस देव आपकी आज्ञा की प्रतिक्षा करते हैं। ये हास्य-विलास एवं आनन्द की गोष्ठी को रसीली बनाने वाले देव हैं। ये निरन्तर शस्त्र और कवचधारी आपके आत्मरक्षक देव हैं और ये लोकपाल आपके विमान की रक्षा करने वाले हैं। सेनापति भी हैं और प्रजारूप देव भी हैं। ये सभी आपकी आज्ञा को शिरोधार्य करेंगे। आपकी दास के रूप में सेवा करने वाले ये आभियोगिक देव हैं और सभी प्रकार की मलिनता दूर करने वाले ये किल्विषी देव हैं । सुन्दर रमणियों से रमणीय और मन को प्रसन्न करने वाले ये आपके रत्नजड़ित प्रासाद हैं । स्वर्ण कमल की खान रूप ये वापिकाएँ हैं। ये वारांगनाएँ, चामर, आरिसा और पंखा हाथ में ले कर आपकी सेवा में तत्पर रहती हैं । यह गन्धर्व वर्ग, संगीत करने के लिए उपस्थित हैं।
इस प्रकार प्रतिहारी का निवेदन सुनने के बाद ललितांग देव ने अपने अवधिज्ञान से पूर्वभव का स्मरण किया। उसे धर्म के प्रभाव का साक्षात्कार हुआ। इसके बाद उसका विधिवत् अभिषेक किया गया ।।
देव के वियोग में शोकमग्न
इसके बाद वह क्रीड़ाभवन में गया, जहाँ उसे 'स्वयंप्रभा ' नाम की देवांगना दिवाई
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