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भ. विमलनाथजी-धर्मदेशना
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दिया, वह सत्य एवं उचित है । किन्तु आप भी सोचिये कि हमने जो सम्पत्ति प्राप्त की, वह मेरक की तो नहीं थी ? यदि आपका स्वामी, अपने बल के अधिकार से दूसरों की सम्पत्ति का स्वामी हो सकता है, तो हम क्यों नहीं हो सकते ? हम भी अपने भुज-बल से उसका सारा राज्य छीन सकते हैं । 'वीर-भोग्या वसुन्धरा'--जब पृथ्वी का राज्य, वीर पुरुष ही कर सकते हैं, तो अकेला मेरक ही वीर नहीं है । मेरे ज्येष्ठ-बन्धु महाबाहु भद्रजी और मैं अपनी शक्ति से यह समस्त भूमि, आपके राजा से छीन लेंगे और दक्षिण-भरत में
ज्य करेंगे। मेरक ने भी दूसरे राजाओं को जीत कर राज्य प्राप्त किया है, तो हम उस अकेले को जीत कर पूरा राज्य अपने अधिकार में कर लेंगे।"
स्वयंभ कुमार की बातें सुन कर मन्त्री को आश्चर्य हुआ और उनकी सामर्थ्य का अनुमान कर के भय भी लगा। वे वहाँ से लौट गये और मेरक नरेश से सभी बातें स्पष्ट रूप से कह दी। मेरक की कषायाग्नि प्रज्वलित हो गई। वह विशाल सेना ले कर द्वारिका की ओर चल दिया । इधर राजकुमार स्वयंभू भी अपने पिता, ज्येष्ठ-भ्राता और सेना ले कर राज्य की सीमा की ओर चल दिए । दोनों सेनाओं का सामना होते ही युद्ध प्रारम्भ हो गया। भयंकर नरसंहार मच गया। फिर दोनों ओर से विविध प्रकार के भयंकर अस्त्रों का प्रहार होने लगा। अंत में मेरक द्वारा छोड़े हुए चक्र के आघात से स्वयंभू कुमार मूच्छित हो कर रथ में गिर गए। थोड़ी देर में सावधान हो कर उसी चक्र के प्रकार से राजकुमार स्वयंभू ने मेरक का वध कर के युद्ध का अंत कर दिया । मेरक के अंत के साथ ही स्वयंभू, मेरक के राज्य के स्वामी बन गये। वे दक्षिण भरत को पूर्ण रूप से विजय कर के तीसरे वासुदेव पद पर प्रतिष्ठित हुए । बड़े आडम्बर पूर्ण उत्सव के साथ उनका राज्याभिषेक हुआ।
x दो पर्ष पर्यन्त छद्मस्थ अवस्था में रह कर भ० श्री विमलनाथ स्वामी को पौषशुक्ला छठ के दिन बेले के तप से उत्तराभाद्रपद नक्षत्र केवलज्ञान-केवलदर्शन प्राप्त हो गया। देवों और इन्द्रों ने केवल-महोत्सव किया। भगवान् ने प्रथम धर्मदेशना देते हुए फरमाया;--
धर्मदेशना बोधि-दुर्लभ भावना
अकाम-निर्जरा रूपी पुण्य से बढ़ते-बढ़ते जीव, स्थावरकाय से छूट कर त्रसकाय में
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