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तीर्थकर चरित्र
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आता है। फिर वेइन्द्रिय से तेइन्द्रिय, यों बढ़ते-बढ़ते पंचेन्द्रिय अवस्था, बड़ी कठिनाई से और बहुत लम्बे काल के बाद मिलती है। पंचेन्द्रिय अवस्था प्राप्त करने के बाद भी जब कर्म बहुत हल्के हो जाते हैं, तभी मनुष्य-जन्म की प्राप्ति होती है। इसी प्रकार आर्यदेश, उत्तमकुल, सभी इन्द्रियों की पटुता और दीर्घ आयु की कथंचित् प्राप्ति होती है। इससे भी अधिक पुण्य का उदय होता है, तभी सद्धर्मकथक सद्गुरु का सुयोग मिलता है और शास्त्रश्रवण करने की अनुकूलता प्राप्त होती है। पुण्य का अत्यधिक उदय होता है, तब धर्म में श्रद्धा होती है । इस प्रकार सभी प्रकार की अनुकूलता हो, तो भी तत्त्वनिर्णय रूप ‘बोधिरत्न' की प्राप्ति होना तो महान् दुर्लभ है। श्रद्धा के बाद प्रतीति और उसके बाद रुचि हो जाना महानतम पुण्य उदय एवं कर्म-निर्जरा हो तभी होता है।
बोधि-रत्न की प्राप्ति जितनी दुर्लभ है, उतनी राज-सत्ता और चक्रवर्तीपन की प्राप्ति दुर्लभ नहीं है । सभी जीवों ने, ऐसे सभी भाव, पहले अनन्तबार प्राप्त किये होंगे, किन्तु जब इस संसार में जीवों का परिभ्रमण देखने में आवे, तो विचार होता है कि जीवों ने बोधि-रत्न की प्राप्ति पहले कभी नहीं की। इस संसार में परिभ्रमण करते हुए सभी प्राणियों को पुदगल-परावर्तन अनन्त हो गए । जब अन्त का अर्धपुद्गल परावर्तन शेष रहता है, तब सभी कर्मों की स्थिति एक कोटाकोटी सागरोपम से कम होती है और तभी 'यथाप्रवृत्तिकरण' से आगे बढ़ कर कोई प्राणी ग्रंथी-भेद कर के उत्तम ‘बोधि-रत्न' को प्राप्त करता है।
कुछ जीव ऐसे भी होते हैं कि यथाप्रवृत्तिकरण कर के ग्रंथी-भेद की सीमा तक तो आते हैं. किन्तु यहाँ आ कर रुक जाते हैं और आगे नहीं बढ़ कर उलटे पीछे लौट आते हैं और फिर संसार में भटकते रहते हैं।
सम्यक्त्व-रत्न प्राप्त होने में अनेक प्रकार की बाधाएँ रही हुई है। उत्थान के इस मार्ग में कुशास्त्रों का श्रवण, मिथ्यादृष्टि का समागम, बुरी वासनाएँ और प्रमाद ऐसे शत्रु हैं, जो आगे नहीं बढ़ने दे कर पीछे धकेलते हैं । यद्यपि चारित्र-रत्न की प्राप्ति भी दुर्लभ है, किन्त बोधि-रत्न की प्राप्ति के बाद चारित्र-रत्न की प्राप्ति की दुर्लभता बहुत कम हो जाती है. और चारित्र की सफलता भी बोधि के अस्तित्व में ही होती है । अन्यथा प्राप्त चारित्र भी निष्फल हो जाता है । अभव्य प्राणी भी चारित्र ग्रहण कर के नौवें ग्रैवेयक तक उत्पन्न हो सकता है, किन्तु बोधि-रत्न के अभाव में वे मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकते ।
चक्रवर्ती महाराजाधिराज के पास अपार सम्पत्ति होती है, किन्तु बोधि-रत्न नहीं हो, तो वे एक प्रकार से रंक (दरिद्र) हैं और बोधि-रत्न को जिसने प्राप्त कर लिया
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