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तीर्थङ्कर चरित्र
दण्ड-स्वरूप भेज रहा है।'
यह बात सुनते ही स्वयंभू कुमार का कोप जाग्रत हुआ। उसने गर्वपूर्वक कहा
"तो यह रत्न-भंडार और हाथी-घोड़े, शशिसौम्य से दण्ड में लिये जा रहे हैं ? अब इनका स्वामी शशिसौम्य नहीं रहा? हम चाहते हैं कि यह सम्पत्ति मेरक की भी नहीं बने। यह सब हमारा है। हमारे सामने से हमारे देखते, यह मेरक के पास नहीं जा सकती। यदि बलवान् ही सब सम्पत्ति का स्वामी हो सकता है, तो हम भी इसे प्राप्त कर सकते हैं।"
उन्होंने अपने सैनिकों को आज्ञा दी ;--"तुम जाओ और उपवन के समीप लगे हुए पड़ाव में से सभी हाथी-घोड़े, रत्न-भण्डार और शस्त्रादि लूट लाओ।"
सैनिक गये और धावा कर दिया । रक्षक-दल स्तब्ध रह गया। वह इस अचानक आक्रमण के लिए तय्यार नहीं था। सभी भाग गये और सारी सम्पत्ति सरलता से प्राप्त हो गई । उन भागे हुए सैनिकों ने नन्दनपुर जा कर मेरक नरेश के सामने अपनी दुर्दशा और लूट का वर्णन किया। मेरक नरेश का कोप भड़का । उन्होंने चढ़ाई करने की आज्ञा दी, किन्तु मंत्री ने रोकते हुए कहा ;--
"महाराज! यह दुर्घटना बालकों की उदंडता से हुई है। इसका दण्ड रुद्र को नहीं मिलना चाहिए। रुद्र राजा आपका आज्ञाकारी रहा है। वह सारी सम्पत्ति लौटा देगा और विशेष में कुछ भेंट भेज कर क्षमा याचना करेगा । हमें उसके पास दूत भेज कर उपालंभ देना चाहिए । इस प्रकार शांति से काम हो जाय, तो अच्छा है । अन्यथा बाद में भी आप शक्ति का प्रयोग कर के उसे दण्ड दे सकेंगे।"
मन्त्री का परामर्श मान्य हुआ और उसी को दूत बना कर द्वारिका भेजा गया । मन्त्री ने रुद्र राजा को समझाया;---
"नरेश ! तुम्हारे पुत्रों ने यह अनर्थ क्यों कर डाला ? आप तो इसके परिणाम को जानते ही हैं । स्वामी का मान रखने के लिए उसके कुत्ते का भी अनादर नहीं होता, तब इन कुमारों ने कैसा भयंकर दुःसाहस कर डाला । अब सारी सामग्री और अपनी ओर से विशेष भेंट भेज कर इस कलुष को धो डालिये । इससे शांति हो जायगी और कुमारों के अविनय को अज्ञानता का आवरण ढंक देगा।"
मन्त्री की बात सुन कर राजा विचार में पड़ गया । इतने में राजकुमार स्वयंभू कहने लगे;--
--"आपकी स्वामी-भक्ति और पिताश्री के प्रति पूज्य-भाव से आपने जो परामर्श
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