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भ. विमलनाथजी स्वयंभू वासुदेव चरित्र
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अपने हृदय से निकाल नहीं सका । उसे रह-रह कर मित्र द्वारा हुआ विश्वासघात और अपमान खटकने लगा । अंत में उसने निदान ( दृढ़ संकल्प ) कर ही लिया कि यदि मेरे तप का फल हो, तो मैं भवान्तर में उस मित्र द्रोही 'बलिराजा' का वध कर के उसके पाप का बदला लूँ, इस प्रकार तप से प्राप्त आत्मबल को दाँव पर लगा दिया और अनशन कर के मृत्यु पा कर वह बारहवें स्वर्ग में उत्पन्न हुआ ।
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बलि राजा भी कालान्तर में राज का त्याग कर के साधु हो गया और संयम पाल कर देवलोक में गया । वहाँ से आयु पूर्ण कर के भरत क्षेत्र के नन्दनपुर नगर के 'समरकेसरी' राजा की सुन्दरी रानी की कुक्षि से पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ। वह बड़ा प्रतापी, योद्धा और महत्वाकांक्षी हुआ । उसने वैताढ्य पर्वत तक आधे भरत क्षेत्र को जीत लिया और अर्ध चक्रवर्ती 'मेरक' नामक 'प्रतिवासुदेव' हुआ । उसकी समानता करने वाला उस समय दूसरा कोई भी राजा नहीं था । उसकी आज्ञा का उल्लंघन करने की शक्ति किसी में नहीं थी ।
द्वारिका नगरी में रुद्र नाम का राजा था। उसके 'सुप्रभा' और 'पृथिवी' नाम की दो रानियाँ थीं । 'नन्दीसुमित्र' का जीव, अनुत्तर विमान से च्यत्र कर सुप्रभादेवी की कुक्षि में उत्पन्न हुआ । माता ने बलदेवपद को सूचित करने वाले चार महास्वप्न देखे । जन्म होने पर पुत्र का नाम 'भद्र' रखा गया। वह अनुक्रम से बढ़ता हुआ एक महा बलवान् योद्धा हुआ ।
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धनमित्र का जीव, अच्युत स्वर्ग से च्यत्र कर पृथिवीदेवी की कुक्षि में उत्पन्न हुआ और सात महास्वप्न से, वासुदेव पद के धारक विशिष्ट शक्तिशाली महापुरुष के आगमन का सन्देश मिला । जन्म होने पर पुत्र का 'स्वयंभू' नाम दिया गया । कुमार दिन-प्रति-दिन बढ़ने लगा । बड़े भाई भद्र का स्वयंभू पर अत्यंत स्नेह था । स्वयंभू भी अद्वितीय बलवान् और सभी कलाओं में प्रवीण हो गया ।
एक बार दोनों राजकुमार, मन्त्री पुत्र और अन्य साथियों के साथ नगर के समीप के उपवन में कीड़ा करने गये । उन्होंने देखा कि बहुत से हाथी-घोड़े और धन से भरपूर तथा बहुत से सैनिकों से युक्त एक पड़ाव जमा हुआ है। उन्होंने मन्त्री से पूछा । पता लगाने पर मालूम हुआ कि
' शशिसौम्य राजा पर, महाराजाधिराज 'मेरक' क्रुद्ध हो गया और दण्ड- स्वरूप उसकी सम्पत्ति की माँग की । शशिसौम्य, अपने जीवन की रक्षा के लिए यह सब सम्पत्ति
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