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भ० विमलनाथजी
धातकी-खंड द्वीप के पूर्व-विदेह क्षेत्र की भरत नामक विजय में महापुरी नाम की नगरी थी । पद्मसेन महाराज उस नगरी के शासक थे। वे गुणों के भंडार और बलवानों में सर्वोपरि थे । जैनधर्म पर उनकी प्रगाढ़ श्रद्धा थी। वे राज्य का संचालन अनासक्ति पूर्वक कर रहे थे। उनके हृदय में वैराग्य बसा हुआ था । श्री सर्वगुप्त आचार्य का योग पा कर वे दीक्षित हो गए और चारित्र तथा तप की उत्कट आराधना करते हुए तीर्थंकर नाम कर्म का बन्ध कर लिया। बहुत वर्षों तक विशुद्ध चारित्र पालते एवं उग्न तप करते हुए आयु पूर्ण कर के वे सहस्रार देवलोक में महान् ऋद्धिशाली देव हुए।
__इस जम्बूद्वीप के भरत-क्षेत्र में कम्पिलपुर' नामक नगर था। वह नगर धन, जन, वैभव और सुख-समृद्धि से भरपूर था। ‘कृतवर्मा' नाम के नरेश वहाँ के अधिपति थे । वे धीर, वीर, नीतिवान् और सद्गुणी थे। महारानी श्यामादेवी उनकी अग्रमहिषी थी। महारानी भी कुल, शील, लक्षण एवं वर्णादि में सुशोभित तथा श्री-सम्पन्न थी।
पद्मसेन मुनिराज का जीव, वैशाख-शुक्ला द्वादशी को उत्तराभाद्रपद नक्षत्र में सहस्रार देवलोक से च्यव कर महारानी श्यामादेवी की कुक्षि में उत्पन्न हुआ । महारानी ने चौदह महास्वप्न देखे । गर्भकाल पूर्ण होने पर माघ-शुक्ला तृतीया की मध्यरात्रि को उत्तराभाद्रपद नक्षत्र में महारानी ने एक परम तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया। उस समय सभी ग्रह अपने-अपने उच्च स्थान पर थे। जन्म होते ही छप्पन कुमारिका देवियें, सूतिका कर्म करने
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