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तीर्थंकर चरित्र
वाले ऐसे पाखंड व्रत वालों में सरलता नहीं होती । गृह और पुत्रादि के परिग्रह वाले और लोभ के कुलग्रह रूप जीवों में निर्लोभिता नहीं हो सकती । इस प्रकार के अनेक दोषों से युक्त लोगों का बताया हुआ मार्ग, कदापि धर्म नहीं हो सकता । वास्तविक और सर्वथा निर्दोष धर्म तो राग-द्वेष और मोह से रहित तथा केवलज्ञान से सुशोभित ऐसे अरिहंत भगवंतों का ही है । इस प्रकार के विशुद्ध धर्म से जिनेश्वर भगवंतों की महानता और निर्दोषता सिद्ध होती है ।
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मनुष्य राग-द्वेष के कारण असत्यवादी बनता है, किन्तु जिनेश्वर भगवंत में रागद्वेष का लेश भी नहीं है, फिर उनमें असत्यवादिता कैसे आ सकती है ? जिनके चित्त रागादि दोषों से कलुषित होते हैं, उनके मुँह से सत्य वाणी नहीं निकलती । जो यज्ञ-हवन आदि कर्म करते हैं, वापी, कूप, तालाब, नदी आदि में स्नान करने से पुण्य होना मानते हैं, पशु का घात कर के स्वर्ग सुख की आशा करते हैं, ब्राह्मण भोजन से पितरों को तृप्त होना मानते हैं, ' घृतयोनि' + आदि कर के प्रायश्चित्त करते हैं । पाँच प्रकार की आपत्तियाँ आने पर स्त्रियों का पुनविवाह करवाते हैं । यदि स्त्री में पुत्र को जन्म देने की शक्ति हो, तो उसमें 'क्षेत्रज पुत्र' की उत्पत्ति करवाने का निरूपण करते हैं । दूषित स्त्रियाँ रजस्राव से शुद्ध होती है -- ऐसा मानते हैं । कल्याण की बुद्धि से यज्ञ में बकरों को मार कर उनके लिंग से आजीविका करते हैं, सौत्रामणि और सप्ततंतु यज्ञ में मदिरा का पान करते हैं । विष्टा खाने वाली गायों का स्पर्श कर के पवित्र होना मानते हैं । जल आदि के स्नान मात्र से पापों की शुद्धि होना कहते हैं। बड़, पीपल, आँवली आदि वृक्षों की पूजन करते हैं । अग्नि में किये हुए हव्य से देवों की तृप्ति होना मानते हैं । पृथ्वी पर गाय दूहने से अरिष्ट ( दुःख ) की शान्ति होना कहते हैं । ऐसे व्रत और धर्म का उपदेश करते हैं कि जिससे स्त्रियों को मात्र विडम्बना ही होती है । लम्बी जटा, भस्म, अगराग और कोपिन धारण करते हैं । आक, धतूरे और मालूर के फूलों से देव की पूजा करते हैं । गीत नृत्य करते हुए बार-बार अप-शब्द बोलते हैं । मुख बिगाड़ कर गीत नाद करते हैं । असभ्य भाषा पूर्वक देव, मुनि और लोगों को सम्बोधन करते हैं । व्रत का भंग कर के दासी - दासपना करना चाहते हैं । कन्दादि अनन्तकाय और फल - मूल तथा पत्र का भक्षण करते हैं । स्त्री
+ यदि कोई पुरुष पर- स्त्री संग करे, तो घृत की योनि बना कर दान देने से प्रायश्चित्त हो कर शुद्धि होना माना जाता है ।
* पति के अभाव में अन्य पुरुष के संग से जो स्त्री, पुत्र उत्पन्न करती है, वह पुत्र ' क्षेत्रज' कहलाता है ।
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