________________
भ० वाहणज्यजी-धर्म-दुर्लभ भावना
२४५
और पुत्र के साथ बन में जा कर वसते हैं। भाभक्ष, पेयापेय और गम्यागम्य का विवेक छोड़ क र समान रूप से आचरण करते हैं, तथा 'योगी' के नाम से प्रसिद्ध होते हैं। कई कौलाचार्य के शिष्य होते हैं। इनके तथा अन्य कई मतावलम्बियों के मन में जैन धर्म का स्पर्श भी नहीं हुआ हैं। उन्हें यह मालूम नहीं है कि धर्म क्या है ? धर्म का फल क्या है ? और उनके धर्म में प्रामाणिकता कितनी है ?
श्री जिनेश्वर भगवंत के बताये हुए धर्म की आराधना से इस लोक तथा तथा परलोक में जो सुखदायक फल होता है, वह तो आनुसांगिक (गौण रूप) है । मुख्य फल तो मोक्ष ही है। जिस प्रकार खेती करने का मुख्य फल धान्य की प्राप्ति है। इसके साथ जो पलाल-भसा आदि की प्राप्ति होती है, वह गौण रूप है। उसी प्रकार धर्म-करणी का मुख्य फल मोक्ष ही है । सांसारिक सुख होता है, वह गौण रूप है।
जैन-धर्म अलौकिक धर्म है । इसका उद्देश्य आत्मा की दबी हुई अनन्त शक्तियों का विकास कर के परमात्म-पद प्राप्त कराना है। इस धर्म की आराधना से आत्मा, अपने भीतर रहे हुए अनन्त सहज सुखों को प्रकट कर के आत्मानन्द में लीन रहती है।
स्वाख्यातः खलु धर्मोऽयं, भगद्भिजिनोत्तमैः । यं समालंबमानो हि, न मज्जेद् भवसागरे ॥१॥ संयमः सुनतं शौचं, ब्रह्माकिंचनता तपः ।
क्षतिर्दिवमृजुता, मुक्तिश्च दशधा स तु ॥२॥ केवलज्ञान-केवलदर्शन के धारक जिनेश्वर भगवंत ने, आत्म-कल्याणकारी धर्म का स्वरूप बहुत ही स्पष्टता से बतलाया है। जो भव्यात्माएँ इस शक्तिशाली धर्म का अवलम्बन करती है, वे संसार भ्रमण रूपी भव सागर में नहीं डूबती, किन्तु शाश्वत सुखों की भोक्ता बन जाती है । जिनेश्वरोपदेशित धर्म, संयम (अहिंसा) सत्य, शौच (अदत्त त्याग) ब्रह्मचर्य, अकिंचनता, तप, क्षमा, नम्रता, सरलता और निर्लोभता रूप दस प्रकार का है । आगे धर्म का महात्म्य बतलाते हुए कहा है कि
धर्म-प्रभावतः कल्पद्रुमाद्या ददतिप्सितम् । गोचरेपि न ते यत्स्युर धर्माधिष्टितात्मनाम् ॥३॥ अपारे व्यसनांभोधौ पततं पाति देहिनम् । सदा सविधवयेको बंधुर्धर्मोऽतिवत्सलः ॥४॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org