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म. वासुपूज्य जी-धर्म-दुर्लभ भावना
तिरछी नहीं जाती और वायु की गति नहीं होनी । यदि धर्म सहायक नहीं होता और अग्नि की लपटें तिरछी जाती, तो पृथ्वी पर के सभी प्राणी जल कर भस्म हो जाते । वायु की गति ऊर्ध्व होती, तो पृथ्वी पर के जीव और अन्य वस्तुएँ उड़ कर आकाश में चली जाती । बिना किसी आधार और अवलम्बन के यह पृथ्वी ठहरी हुई है और अनन्त जीवअजीव को धारण कर रही है। यह भी धर्म के ही प्रभाव से है। धर्म के शासन से ही विश्व के उपकार के लिए मूर्य और चन्द्रमा का उदय होता है ।
जिसके कोई बन्धु नहीं है, उसका यह विश्व-वत्सल धर्म ही बन्धु है। जिसके कोई मित्र नहीं, उसका मित्र धर्म है। यह अनाथों का नाथ और रक्षक-विहीन जीवों का रक्षक है। यह नरक में पड़ते हुए प्राणियों की रक्षा करने वाला है। इसकी कृपा से जीव, उन्नत होता हुआ सर्वज्ञ-सर्वदर्शी होता है और परम सुख को प्राप्त कर लेता है।
मिथ्यादृष्टि लोगों ने दस प्रकार के धर्म को तात्विक दृष्टि से कभी नहीं देखा, नहीं जाना । यदि किसी ने कहीं इनका उल्लेख किया हो, तो वह केवल वाणी का नृत्य ही है। वाणी में तो तत्व, प्राय: सभी के रह सकता है और किसी-किसी के मन में भी तत्वार्थ रह सकता है, (अविरत सम्यग्दृष्टियों के ? ) किन्तु जिन-धर्म को स्पर्श करने वाले पुरुषों के तो वाणी, मन और क्रिया में- सभी में तत्वार्थ होता है। जिनकी बुद्धि कुशास्त्रों के आधीन हो गई है, वे धर्म-रत्न को बिलकुल नहीं जानते । गोमेघ, नरमेघ और अश्वमेघादि करने वाले प्राणी-घातक जीवों को धर्म की प्राप्ति कैसे हो सकती है ? असत्य, परस्पर विरोधी, अस्तित्व-हीन और जिनमें सुज पुरुषों को श्रद्धा नहीं हो सके, ऐसी कल्पित बातों को बताने वाले शास्त्र-रचयिताओं में धर्म मिले ही कैसे ? धर्म को नहीं जानने वाले पुरुषों से अधार्मिक व्यवस्था होती है। जैसे--परद्रव्य को हरण करने के नियम और मिट्टी तथा पानी से आत्मा की शुद्धि होने का विधान ।
“ स्त्री सेवन नहीं कर के ऋतुकाल का उल्लंघन करने वाले को गर्भहत्या का पाप लगे"-- इस प्रकार कह कर, ब्रह्मचर्य का नाश करने वालों में धर्म की सम्भावना भी कैसे हो सकती है ? यजमान का सर्वस्व लेने की इच्छा करने वाले और द्रव्य के लिए प्राण त्याग करने वालों में निष्परिग्रहता' नहीं हो सकती । स्वल्प अपराध होने पर क्षणमात्र में शाप देने वाले लौकिक ऋषियों में क्षमा का लेश भी दिखाई नहीं देता । जाति आदि के मद से और दुराचरण से जिनके हृदय सराबोर रहते हैं, ऐसे चतुर्थ आश्रम वाले सन्यासियों में कोमलता-सरलता नहीं हो सकती। हृदय में दंभ रखने वाले और ऊपर से बुगला-भक्त बनने
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