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इस प्रकार माता-पिता को समझा कर जन्म से अठारह लाख वर्ष व्यतीत हुए बाद श्री वासुपूज्य कुमार दीक्षा लेने की भावना करने लगे । उस समय लोकान्तिक देव का आसन कम्पायमान होने से, स्वर्ग से चल कर प्रभु के समीप आये और तीर्थ प्रवर्तन करने की विनती की । भगवान् ने तीर्थंकरों के कल्प के अनुसार फाल्गुन की अमावस्या को उपवास के तप से छह सौ राजाओं के ग्रहण की । तत्काल प्रभु को मनः पर्यव ज्ञान उत्पन्न हो गया ।
तीर्थंकर चरित्र
द्विपृष्ट वासुदेव चरित्र
पृथ्वीपुर नगर में 'पवनवेग' नाम का राजा राज करता था । बहुत वर्षों तक राज करने के बाद उन्होंने यथावसर श्रवणसिंह मुनि के समीप प्रव्रजित हो कर संयम और तर की विशुद्ध आराधना की और अप्रमत्त अवस्था में काल कर के अनुत्तर विमान में देवता हुए ।
इस जम्बूद्वीप के दक्षिण भरतार्द्ध में 'विध्यपुर' नाम का प्रसिद्ध एवं प्रमुख नगर था । वह धन-धान्य एवं ऋद्धि से परिपूर्ण था । महान् पराक्रमी और सिंह के समान शक्तिशाली 'विध्यशक्ति' नाम का प्रतापी नरेश वहाँ का शासक था। उसके प्रभाव से अन्य
जागण दबे हुए थे । वे महाराजा विध्यशक्ति की कृपा एवं रक्षण के लिए प्रयत्नशील रहते थे । एक बार वह अपनी राज सभा में बैठा हुआ था कि एक चर पुरुष आया और कहने लगा;
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वर्षीदान दिया और साथ प्रभु ने प्रव्रज्या
"महाराज ! साकेतपुर के अधिपति 'पर्वत' नरेश के पास 'गुणमंजरी' नामकी एक अनुपम सुन्दरी वेश्या है । उसका अंग-प्रत्यंग सुन्दरता से परिपूर्ण है । उसकी समानता करने वाला दूसरा कोई स्त्री-रत्न इस पृथ्वी पर नहीं है । वह मात्र रूप-सुन्दरी ही नहीं है, उसका नृत्य, संगीत और वादन, सभी उत्तमोत्तम है । वह आपके योग्य है । उसके बिना आपका राज्य फीका है ।'
चर पुरुष की बात सुन कर राजा ने गुणमंजरी वेश्या की याचना करने के लिए दूत भेजा । पर्वत राजा ने इस याचना को अपमानपूर्वक ठुकरा दिया । विध्यशक्ति ने विशाल सेना ले कर साकेतपुर पर चढ़ाई कर दी। दोनों में भीषण युद्ध हुआ । अंत में पर्वत हार कर भाग गया और विध्यशक्ति नरेश ने नगर में प्रवेश कर के गुणमंजरी वेश्या
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