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________________ विवाह नहीं करूँगा यौवन वय प्राप्त होने पर अनेक देश के राजाओं ने राजकुमार वासुपूज्य के साथ अपनी राजकुमारियों का वैवाहिक सम्बन्ध जोड़ने के सन्देश भेजे । माता-पिता ने युवराज वासुपूज्य को विवाह करने और राज्य का भार वहन करने की प्रेरणा की । किन्तु संसार विरक्त प्रभु ने अपनी हार्दिक इच्छा व्यक्त करते हुए कहा ; 'पिताश्री ! आपका पुत्र स्नेह में जानता हूँ । किन्तु मैं चतुर्गति रूप संसार में भ्रमण करते हुए ऐसे सम्बन्ध अनन्त बार कर चुका हूँ । संसार सागर में भटकते हुए मैने जन्म-मरणादि के अनन्त दुःख भोगे । अब में संसार से उद्विग्न हो गया हूँ । इसलिए अब मेरी इच्छा एकमात्र मोक्ष साधने की है । आप लग्न की बात छोड़ कर प्रव्रज्या ग्रहण करने की अनुमति दीजिए ।" पुत्र की बात सुन कर पिता ने गद्गद् स्वर से कहा; " पुत्र ! मैं जानता हूँ कि तुम भोगार्थी नहीं हो। तुम्हारे मोक्षार्थी एवं जगदुद्धारक होने की बात में तभी जान गया था, जब तुम गर्भ में आये थे । देवों ने तुम्हारा जन्मोत्सव किया था । किन्तु विवाह करने से और राज्य का संचालन करने से तुम्हारी मुक्ति नहीं रुकेगी । कुछ काल तक अर्थ और काम पुरुषार्थ का सेवन करने के बाद धर्म और मोक्ष पुरुषार्थ में प्रवृत्ति हो सकेगी । तुम्हारे पूर्व हुए आदि तीर्थकर भ० ऋषभदेवजी और अन्य तीर्थंकरों ने भी विवाह किया था और राज्य भार भी उठाया था । उसके बाद वे मोक्षमार्ग में प्रवृत्त हुए थे। इसी प्रकार तुम भी विवाह करो और राज्य का भार सम्हाल कर हमें मोक्ष- साधना में लगने दो ।" ** 'पिताश्री ! आपने कहा वह ठीक है। में गत महापुरुषों के चरित्र जानता हूँ । सभी मनुष्यों और महापुरुषों का जीवन, समग्र दृष्टि से सनान नहीं होता । जिनके भोगफल-दायक कर्मों का उदय हो, उन्हें विवाह भी करना पड़ता है और राज्य संचालन भी करना पड़ता है । जिनके ऐसे कर्मों का उदय नहीं होता, वे अविवाहित एवं कुमार अवस्था में ही त्याग मार्ग पर चल देते हैं । भावी तीर्थंकर श्री मल्लिनाथजी और श्री अरिष्टनेमिजी भी अविवाहित रह कर ही प्रव्रजित हो जावेंगे । चरम तीर्थंकर भ० महावीर के भोग-कर्म स्वल्प होने से विवाह तो करेंगे, किन्तु थोड़े काल के बाद, कुमार अवस्था में ही प्रव्रजित हो जायेंगे । वे राज्य का संचालन नहीं करेंगे। विवाह करने और भोग भोगने तथा राज्याधिपति बनने में वैसे भोग योग्य कर्मों का उदय कारणभूत होता है। जिनके वैसे कर्म उदय में आते हैं, वे वैसी प्रवृत्ति करते हैं । मेरी इनमें रुचि नहीं है । आप अपने मोह को त्याग कर मुझे निर्ग्रथ दीक्षा लेने की अनुमति प्रदान करें । 31 Jain Education International -- For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001915
Book TitleTirthankar Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1976
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size8 MB
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