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भ० वासुपूज्यजी
पुष्करवर द्वीपाद के पूर्व विदेह क्षेत्र में, 'मंगलावती' नाम के विजय में 'रत्नसंचया' नाम की एक विशाल एवं समृद्ध नगरी थी। 'पद्मोत्तर' नरेश वहाँ का शासन करते थे। वे जिनेश्वर भगवान् की उपासना करने वाले थे। उनका राज्य, समुद्र पर्यन्त फैला हुआ था।
एक बार अनित्य भावना में लीन बने हुए महाराजा पद्मोत्तर के हृदय में वैराग्य बस गया। उन्होंने वज्रनाभ मुनिवर के समीप प्रव्रज्या ग्रहण कर ली। साधना में उत्तरोत्तर वृद्धि करते हुए आपने तीर्थंकर नाम-कर्म का बंध कर लिया और बहुत वर्षों तक संयम का पालन करते हुए, आयु पूर्ण कर के प्राणत नाम के दसवें देवलोक में महद्धिक देव हुए।
____ जंबूद्वीप के दक्षिण भरतार्द्ध में 'चंपा' नाम की एक नगरी थी। उस विशाल मनोहर एवं समृद्ध नगरी के स्वामी महाराजा 'वासुपूज्य' थे। वे दानेश्वरियों में अग्रगण्य थे। उनका शासन न्याय-नीति एवं सदाचारपूर्वक चल रहा था । नरेश जिनेश्वर भगवान् के सेवक थे। उनकी पटरानी का नाम 'जयादेवी' था। वह सुलक्षणी, सद्गुणों की पात्र और लक्ष्मी के समान सौभाग्यशालिनी थी। पद्मोत्तर राजा का जीव, देवलोक का सुखमय जीवन व्यतीत कर के, आयुष्य पूर्ण होने पर ज्येष्ठ-शुक्ला नौमी के दिन शतभिषा नक्षत्र के साथ चन्द्रमा का योग होने पर, जयादेवी की कुक्षि में उत्पन्न हुआ । जयादेवी ने तीर्थंकर के योग्य चौदह महास्वप्न देखे । फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को शतभिषा नक्षत्र में पुत्र का जन्म हुआ। देव-देवियों और इन्द्रों ने जन्मोत्सव किया। पिता के नाम पर ही पुत्र का 'वासुपूज्य' नाम दिया । कुमार क्रमशः वृद्धि पाने लगे।
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