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________________ भ० श्रेयांसनाथजी - त्रिपृष्ठ की क्रूरता और मृत्यु 'महाराजा ! मैं स्वयं इनके रसीले राग और सुरीली तान में मुग्ध हो गया था --- इतना कि रात बीत जाने का भी भान नहीं रहा" - - शय्यापालक ने निवेदन किया । " यह सुनते ही वासुदेव के हृदय में क्रोध उत्पन्न हो गया । उस समय तो उन्होंने कुछ भी नहीं कहा, किंतु दूसरे ही दिन सभा में शय्यापालक को बुलवाया और अनुचरों को आज्ञा दी कि “ इस संगीत प्रिय शय्यापालक के कानों में उबलता हुआ रांगा भर दो । यह कर्त्तव्य भ्रष्ट है । इसने राग-लुब्ध हो कर राजाज्ञा का उल्लंघन किया और संगीतज्ञों को रातभर नहीं छोड़ा ।" २३५ नरेश की आज्ञा का उसी समय पालन हुआ । विचारे शय्यापालक को एकान्त ले जा कर, उबलता हुआ राँगा कानों में भर दिया । वह उसी समय तीव्रतम वेदना भोगता हुआ मर गया । इस निमित्त से वासुदेव ने भी क्रूर परिणामों के चलते अशुभतम कर्मों का बन्ध कर लिया । Jain Education International नित्य विषयासक्त, राज्यमूर्च्छा में लीनतम, बाहुबल के गर्व से जगत् को तृणवत् तुच्छ गिनने वाले, हिंसा में निःशंक, महान् आरम्भ और महापरिग्रह तथा क्रूर अध्यवसाय से सम्यक्त्व रूप रत्न का नाश करने वाले वासुदेव, नारकी का आयु बाँध कर और ८४००००० वर्ष का आयु पूर्ण कर के सातवीं नरक में गया । वहाँ वे तेतीस सागरोपम काल तक महान् दुःखों को भोगते रहेंगे । प्रथम वासुदेव ने कुमारवय में २५००० वर्ष मांडलिक राजा के रूप में २५००० वर्ष, दिग्विजय में एक हजार वर्ष और वासुदेव ( सार्वभौम नरेन्द्र ) के रूप में ८३४९००० वर्ष, इस प्रकार कुल आयु चौरासी लाख वर्ष का भोगा । अपने छोटे भाई की मृत्यु होने से अचल बलदेव को भारी शोक हुआ । वे विक्षिप्त के समान हो गए । उच्च स्वर से रोते हुए वे अपने भाई को -- नींद से जगाते हो, उस प्रकार झोड़ कर सावधान करने का व्यर्थ प्रयत्न करने लगे। इस प्रकार करते-करते वे मूच्छित हो गए । मूर्च्छा हटने पर वृद्धों के उपदेश से उनका मोह कम हुआ । वासुदेव को मृत देह का अग्नि-संस्कार किया गया । किन्तु बलदेव को भाई के बिना नहीं सुहाता । वे घर-बाहर इधर-उधर भटकने लगे । अंत में धर्मघोष आचार्य के उपदेश से विरक्त हो कर दीक्षित हुए और विशुद्ध रीति से संयम का पालन करते हुए, केवलज्ञान- केवलदर्शन प्राप्त किया और आयु पूर्ण होने पर मोक्ष प्राप्त कर लिया । उनकी कुल आयु ८५००००० वर्ष की थी । || भगवान् श्रेयांसनाथजी का चरित्र सम्पूर्ण || For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001915
Book TitleTirthankar Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1976
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size8 MB
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