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तीर्थंकर चरित्र
का मद (अभिमान) करना-ये नीच-गोत्र कर्म के आस्रव हैं। नीच गोत्र में बताये हुए दोषों से विपरीत गुणों-गर्व रहितता और मन, वचन और काया से विनय करना--ये उच्च गोत्र के आस्रव हैं।
दान, लाभ, वीर्य, भोग तथा उपभोग में किसी कारण से या बिना कारण ही किसी को विघ्न करना--बाधक बनना, ये अन्तराय कर्म के आस्रव हैं।
इस प्रकार आस्रव से उत्पन्न, इस अपार संसार रूपी समुद्र को दीक्षा रूपी जहाज के द्वारा तिर कर पार हो जाना बुद्धिमानों का का कर्तव्य है।
मनोवाक्काय कर्माणि, योगाः कर्म शुभाशुभं । यदाश्रवंति जंतूनामावास्तेन कीर्तिताः ॥१॥ मैयादिवासितं चेत, कर्म सूते शुभात्मकम् । कषायविषयाक्रान्तं, वितनोत्यशुभं पुनः ॥२॥ शुभार्जनाय सुतथ्यं, श्रुतज्ञानाश्रितं वचः । विपरीतं पुनर्जेयमशुभार्जन हेतवे ॥३॥ शरीरेण सुगुप्तेन, शरीरी चिनुते शुभम् । सततारंभिणा जंतुघातकेनाशुभं पुतः ॥४॥ कषायविषयायोगाः प्रमादाविरति ता ।
मिथ्यात्वमातरौद्रं चेत्यशुभं प्रति हेतवः ॥५॥ --मन, वचन और काया का व्यापार, 'योग' कहलाता है । इन योगों के द्वारा प्राणियों में शुभाशुभ कर्मों का आगमन होता है । शुभाशुभ कर्म के आगमन को ही 'आस्रव' कहते हैं।
जब मन, मैत्री प्रमोदादि भावना से शुभ परिणाम युक्त होता है, तब शुभ कर्म की उत्पत्ति करता है और क्रोधादि कषाय युक्त और इन्द्रियों के विषयों से आक्रान्त होता है, तब अशुभ कर्म का सञ्चय करता है।
श्रुतज्ञान के आश्रय से बोला हुआ सत्य वचन, शुभ कर्म के आस्रव का कारण होता है । इसके विपरीत वचन प्रवृत्ति से, अशुभ कर्म के आस्रव का कारण होता है ।
शरीर को बुरी प्रवृत्ति से भली प्रकार से रोक कर, धार्मिक प्रवृत्ति में लगाने से आत्मा शुभकर्म का आस्रव करता है और जीव-घातादि अशुभ कार्यों में निरन्तर लगाये
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