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भ० सुविधिनाथ जी---धर्मदेशना
श्रवण करने की रुचि, पात्र-दान, तप, श्रद्धा, ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप तीन रत्नों की आराधना, मृत्यु के समय तेजो और पदम लेश्या का परिणाम, बालतप, अग्नि, जल आदि साधनों से मृत्यु पाना, फाँसी खा कर मरना और अव्यक्त समभाव--ये देवगति का आयुष्य बाँधने के आस्रव हैं ।
मन, वचन और काया की वक्रता, दुसरों को ठगना, कपटाई करना, मिथ्यात्व, पशुन्य, मानसिक चञ्चलता, नकली सिक्का, चाँदी, सोना आदि बना कर ठगना, झूठी साक्षी देना, वस्तु के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श को बदल कर धोखा देना, किसी जीव के अंग-उपांग काटना और कटवाना, यन्त्रादि की क्रिया, खोटे तोल-माप आदि का उपयोग कर के ठगाई करना, स्वात्म-प्रशंसा, पर-निन्दा, हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्मचर्य, महा आरम्भ, महा परिग्रह, कठोर-वचन, तुच्छ-भाषण, उज्ज्वल वेशादि का अभिमान करना, वाचालता, आक्रोश करना, किसी के सौभाग्य को मिटाने का प्रयत्न, कामण (किसी को हानि पहुँचाने, दुःखी करने या मारने के लिए मन्त्र-तन्त्रादि करना) त्यागीपन का दम्भ कर के उन्मार्ग गमन करना, साधु आदि हो कर दूसरों के मन में कौतुक उत्पन्न करना, वेश्यादि को अलंकारादि देना, दावानल सुलगाना, चोरी करना, तीव्र कषाय, अंगारादि १५ कर्मादान की क्रिया करना-य सभी अशुभ नामकर्म के आस्रव हैं । इनसे विपरीत क्रियाएँ--संसार से भीरुता, प्रमाद का नाश, सद्भाव की अर्पणता, क्षान्ति आदि गण, धार्मिक पुरुषों के दर्शन, सेवा और सत्कार, ये शुभ नाम यावत् तीर्थंकर नामकर्म बन्ध के आस्रव है।
१ अरिहंत २ सिद्ध ३ गुरु ४ स्थविर ५ बहुथुत ६ गच्छ ७ श्रुतज्ञान ८ तपस्वियों की भक्ति ९ आवश्यकादि क्रिया १० चारित्र ११ ब्रह्मचर्य पालन में अप्रमाद १२ विनय १३ ज्ञानाभ्यास १४ तप १५ त्याग (दान) १६ शुभध्यान १७ प्रवचन-प्रभावना १८ चतुर्विध संघ में समाधि उत्पन्न करना तथा साधुओं की वैयावृत्य करना १९ अपूर्वज्ञ न का ग्रहण करना और २० सम्यग्दर्शन की शुद्धि, ४ इन बीस स्थानकों का प्रथम और चरम तीर्थकर ने स्पर्श किया है और अन्य तीर्थंकरों ने इनमें से एक, दो अथवा तीन स्थानकों का स्पर्श किया है।
पर-निन्दा, अवज्ञा, उपहास, सद्गुणों का लोप, सत् अथवा असत् दोषों का आरोपण. स्वात्म-प्रशंसा, अपने सत्-असत् गुणों का प्रचार, अपने दोषों को दबाना और जाति आदि
- इन बीस स्थानकों के क्रम में भी अन्तर है और प्रकार भेद से नामों में भी अन्तर ।
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