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भ० सुविधिनाथजी-धर्म-विच्छेद और असंयती - पूजा
रहने से अशुभ कर्म का आगमन होता है ।
क्रोधादि कपाय, इन्द्रियों के विषय, तीन योग, प्रमाद, अव्रत, मिथ्यात्व, आत्तं और रौद्र ध्यान आदि अशुभ कर्मों के आस्रव के कारण हैं । इन अशुभ कर्मों से पीछे हटना, यह आस्रव भावना का हेतु है ।
भगवान् के 'वराह' आदि ८८ गणधर हुए। २००००० साधु, १२०००० साध्वियें ८४०० अवधिज्ञानी, १५०० चौदह पूर्वधर, ७५०० मनः पर्यवज्ञानी, ७५०० केवलज्ञानी, १३००० वैक्रिय-लब्धि वाले, ६००० वादलब्धि वाले, २२९००० श्रावक और ४७२००० श्राविकाएँ हुई।
आयुष्य काल निकट आने पर प्रभु सम्मेदशिखर पर्वत पर एक हजार मुनियों के साथ पधारे । एक मास का अनशन हुआ और कार्तिक कृष्णा नौमी को मूल नक्षत्र में, अट्ठाइस पूर्वांग और चार मास कम एक लाख पूर्व तक तीर्थंकर पद भोग कर मोक्ष पधारे। प्रभु का कुल आयुष्य दो लाख पूर्व का था ।
धर्म-विच्छेद और असंयती-पूजा
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प्रभु के निर्वाण के बाद कुछ काल तक तो धर्मशासन चलता रहा, किन्तु बाद में हुंडावसर्पिणी काल के दोष से श्रमण धर्म का विच्छेद हो गया । एक भी साधु नहीं रहा । लोग, वृद्ध श्रावकों से धर्म का स्वरूप जानने लगे । श्रावक ही धर्म सुनाते, तब श्रोतागण श्रावकों की अर्थ- पूजा करने लगे । वे श्रावक भी अर्थ - पूजा के लोभी बन गए । उन्होंने नये-नये शास्त्र रचे और दान के फल का महत्व बढ़ा-चढ़ा कर बताने लगे । फिर वे पृथ्वीदान, लोहदान, तिलदान, स्वर्णदान, गृहदान, गोदान, अश्वदान, गजदान, शय्यादान और कन्यादान आदि का प्रचार कर के वैसा दान ग्रहण करने लगे । वे अपने को दान ग्रहण करने योग्य महापात्र बतला कर और दूसरों को कुपात्र कह कर निन्दा करने लगे । वे स्वयं लोगों के गुरु बन गए। इस प्रकार भ० सुविधिनाथजी का तीर्थ विच्छेद हो कर असंयत- अविरत की पूजा होने लगी ।
नौवें तीर्थंकर
भगवान् || सुविधिनाथजी का चरित्र सम्पूर्ण ||
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