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________________ भ० चन्द्रप्रभः स्वामी धातकीखण्ड के प्राग्विदेह क्षेत्र में मंगलावती विजय में 'रत्नसंचया' नाम की नगरी थी । 'पद्म' नाम के राजा वहाँ के शासक थे । वह परम प्रतापी राजा, श्रेष्ठ तत्त्ववेता था और संसार में रहते हुए भी वैराग्य युक्त था । उसने युगन्धर मुनिवर के पास दीक्षा ग्रहण की और साधना के सोपान पर चढ़ते हुए, जिन नाम-कर्म को दृढ़ीभूत किया और कालान्तर में आयुष्य पूर्ण कर के वैजयंत नाम के अनुत्तर विमान में उत्पन्न हुए । इस जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में 'चन्द्रानना' नाम की नगरी थी । ' महासेन' नाम का नरेश वहाँ का अधिपति था । 'लक्ष्मणा' नाम की उसकी रामी थी । पद्म मुनिवर का जीव वैजयंत विमान का तेतीस सागरोपम का आयु पूर्ण कर के चैत्र कृष्णा पंचमी को अनुराधा नक्षत्र में महारानी लक्ष्मणा की कुक्षि में उत्पन्न हुआ और पौष कृष्णा द्वादशी को अनुराधा नक्षत्र में जन्म हुआ। माता को चन्द्र-पान करने का दोहद होने और पुत्र की चन्द्र के समान कान्ति होने से 'चन्द्रप्रभः' नाम दिया गया । यौवन वय में प्रभु ने राजकुमारियों के साथ विवाह किया | ढ़ाई लाख पूर्व तक कुमार अवस्था में रहने के बाद प्रभु का राज्याभिषेक हुआ । साढ़े छह लाख पूर्व और चौवीस पूर्वाग तक राज्य का संचालन किया । पौष कृष्णा त्रयोदशी को अनुराधा नक्षत्र में एक हजार राजाओं के साथ संसार त्याग कर पूर्ण संयमी बन गये । तीन महीने तक छद्मस्थ अवस्था में रहने के बाद फाल्गुन-कृष्णा सप्तमी को अनुराधा नक्षत्र में केवलज्ञान - केवलदर्शन प्राप्त किया । भगवान् ने प्रथम समवसरण में धर्मोपदेश दिया । यथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.prg
SR No.001915
Book TitleTirthankar Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1976
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size8 MB
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