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भ० सुपार्श्वनाथजी---धर्मदेशना
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बुद्धि हो जाती है, वह किसी भी वस्तु का वियोग होने पर तात्विक विषय में मोह को प्राप्त नहीं होता। जिस प्रकार तुम्बी पर का लेप धुल जाने पर वह ऊपर उठ जाती है उसी प्रकार अन्यत्व रूपी भेद ज्ञान से जिस आत्मा ने मोह-मल को धो डाला है, वह प्रव्रज्या को ग्रहण कर स्वल्प काल में ही शुद्ध हो कर संसार से पार हो जाती है।
यत्रायत्वं शरीरस्य, वैसादृश्याच्छरीरिणः । धनबन्धुसहायानां, तत्रान्यत्वं न दुर्वचम् ॥१॥ यो देहधनबन्धुभ्यो, मिन्नमात्मान मीक्षते ।
क्व शोकशंकुना तस्य हंतातंकः प्रतन्यते ॥२॥ --जहाँ मूर्त-अमूर्त, चेतन-जड़ और नित्य-अनित्यादि विसदृश्यता से, आत्मा से शरीर की भिन्नता स्वतः सिद्ध है, वहाँ धन-बान्धवादि सहायकों की भिन्नता बताना अत्युक्ति नहीं कहा जा सकता । जो सुज्ञ मनुष्य, देह, धन और बन्धुजनादि से आत्मा को भिन्न देखता है, उसे वियोगादि जन्य शोक रूपी शल्य कैसे पीड़ित कर सकता है ? इस प्रकार देह, गेह और स्वजनादि से आत्मा भिन्न है--ऐसा विचार करना चाहिए।
प्रभु के विदर्भ आदि ६५ गणधर हुए । तीन लाख साधु, चार लाख तीस हजार साध्वियाँ, २०३० चौदह पूर्व घर, ९००० अवधिज्ञानी, ९१५० मनःपर्यवज्ञानी, ११००. केवलज्ञानी, १५३०० वैक्रिय-लब्धि धारी, ८४०० वाद-लब्धि सम्पन्न, २५७००. श्रावक और ४९३००० श्राविकाएँ हुई।
भगवान् केवलज्ञान के बाद ग्रामानुग्राम विहार कर के भव्य जीवों को प्रतिबोध देते रहे। वे बीस पूर्वांग और नौ मास कम एक लाख पूर्व तक विवरते रहे। आयुष्यकाल निकट आने पर सम्मेदशिखर पर्वत पर पाँव सौ मुनियों के साथ, एक मास के अनशन से, फाल्गुन-कृष्णा सप्तमी को, मूल-नक्षत्र में सिद्धगति को प्राप्त हुए । प्रभु का कुल आयु बीस लाख पूर्व का था।
सातवें तीर्थंकर
भगवान् ।। सुपार्श्वनाथजी का चरित्र सम्पूर्ण ॥
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