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धर्मदेशना
अन्यत्व भावना
"स्त्री, पुत्र, माता, पिता, कुटुम्ब, परिवार, धन-धान्यादि और अपना शरीर, ये सब अपनी आत्मा से भिन्न एवं अन्य वस्तुएँ हैं । मूर्ख मनुष्य, इन्हें अपना मान कर इन पर वस्तुओं के लिए पाप कर्म करता है और भवसागर में डूबता है । जब जीव, शरीर के साथ संलग्न होने पर भी भिन्नता रखता है, तो स्पष्ट रूप से एकदम भिन्न ऐसे कुटुम्ब और धन-धान्यादि की भिन्नता के विषय में तो कहना ही क्या है ?
जो सुज्ञ आत्मा, अपनी आत्मा को देह, कुटुम्ब और धनादि से भिन्न देखता है, उसे शोक रूपी शूल की वेदना नहीं होती । यह भिन्नता एक दूसरे के लक्षण की विलक्षणता से ही स्पष्ट ज्ञात होती है । आत्मा के स्वभाव और शरीर के पौद्गलिक स्वभाव का विचार करने पर यह भेद 'साक्षात् ' हो जाता है । देहादि पदार्थ, इन्द्रियों द्वारा ग्रहण किये जा सकते हैं, किन्तु आत्मा तो केवल अनुभव गोचर होती है । जब दोनों में इस प्रकार की भिन्नता प्रत्यक्ष हो रही है, तब दोनों की अनन्यता - एकता कैसे मानी जाय ?
शंका- यदि आत्मा और देह भिन्न है, तो शरीर पर पड़ती हुई मार की पीड़ा आत्मा को क्यों होती है ?
समाधान -- शंका उचित है, किन्तु पीड़ा उसी को होती है, जिसकी देह में ममत्व बुद्धि है - - अभेद भाव है । जिन महात्माओं को आत्मा और देह के भेद का भली प्रकार से अनुभव ज्ञान हो गया, उन्हें देह पर होते हुए प्रहारादि की वेदना नहीं होती । जो ज्ञानवंत आत्मा है, उसे पितृ-वियोग जन्य दुःख होने पर भी पीड़ा नहीं होती, किंतु जिस अज्ञानी की पर में ममत्व बुद्धि है, जिसे भेद-ज्ञान नहीं है, उसे तो एक नौकर सम्बन्धी दुःख होने पर भी पीड़ा होती है। अनात्मीय-अन्यत्व रूप से ग्रहण किया हुआ पुत्र भी भिन्न है, किंतु आत्मीय - - एकत्व रूप में माना हुआ नौकर भी पुत्र से अधिक हो जाता है । आत्मा जितने संयोग सम्बन्धों को अपने आत्मीय रूप में मान कर स्नेह करता है। उतने ही शोक रूपी शूल उसके हृदय में पहुँच कर दुःखदायक होते हैं । इसलिए जितने भी पदार्थ इस जगत् में हैं, वे सभी आत्मा से भिन्न ही है---इस प्रकार की समझ से जिस आत्मा की अन्यत्व भेद
X आत्मा शरीर से कथंचित् भिन्न कथंचित् अभिन्न है । देह और आत्मा दूध-पानी के समान एकमेक हैं, अत्यंत निकट है, इसलिये वेदना होती है । वेदना होने में असातावेदनीय कर्म के उदय का जोर है, इसलिये वेदना होती है ।
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