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________________ भ० सुपार्श्वनाथजी Jain Education International wwwwwwwwwAA~~ धातकीखंड के पूर्व विदेह क्षेत्र में क्षेमपुरी नगरी थी । नन्दीषेण उसका राजा था । उस धर्मात्मा राजा को संसार से वैराग्य हो गया और उसने अरिदमन नाम के आचार्य के समीप प्रव्रज्या स्वीकार की । संयम एवं तप की उत्तम भावना में रमण करते हुए नन्दीषेण मुनि ने तीर्थंकर नाम-कर्म को निकाचित कर लिया और आयुष्य पूर्ण कर के छठे ग्रैवेयक विमान में देव हुए उनका आयुष्य २८ सागरोपम का था । काशी देश के वाराणसी नगरी में ' प्रतिष्ठसेन' नाम का राजा राज करता था । उसकी रानी का नाम 'पृथ्वी' था । नन्दीषेण मुनि का जीव देवलोक से च्यव कर भाद्रपदकृष्णा अष्टमी को, अनुराधा नक्षत्र में महारानी पृथ्वी की कुक्षि में, चौदह महास्वप्न पूर्वक उत्पन्न हुआ । ज्येष्ठ शुक्ला द्वादशी को विशाखा नक्षत्र में पुत्र का जन्म हुआ । देवी-देवता और इन्द्रों ने जन्मोत्सव किया । गर्भकाल में माता के पार्श्व ( छाती और पेट के अगलबगल का हिस्सा) बहुत ही उत्तम और सुशोभित हुए इसलिए पुत्र का 'सुपार्श्व' नाम दिया गया | यौवनवय में अनेक राजकुमारियों के साथ उनका विवाह हुआ । पाँच लाख पूर्व तक कुमार अवस्था में रहने के बाद, पिता ने प्रभु को राज्य का भार दे दिया । चौदह लाख पूर्व और बीस पूर्वांग तक राज्य का संचालन करने के बाद ज्येष्ठ कृष्णा त्रयोदशी को, अनुराधा नक्षत्र में, बेले के तप सहित संसार का त्याग कर के पूर्ण संयमी बन गए । नौ मास तक संयम और तप की विशिष्ट प्रकार से आराधना करते हुए फाल्गुन-कृष्णा छठ को विशाखा नक्षत्र में केवलज्ञान- केवलदर्शन प्राप्त किया । प्रभु की प्रथम धर्मदेशना इस प्रकार हुई; For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001915
Book TitleTirthankar Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1976
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size8 MB
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