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________________ धर्मदेशना अशुचि भावना अनन्त क्लेश रूपी तरंगों से भरा हुआ यह भवसागर, प्रति-क्षण सभी प्राणियों को ऊपर नीचे और तिरछे फेंकता रहता है । जिस प्रकार समुद्र की लहरें स्थिर नहीं रहती, उसी प्रकार प्राणियों का जीवन भी स्थिर नहीं रहता । किन्तु ऐसे अस्थिर जीवन में भी प्राणी मूच्छित हो रहा है । जिस प्रकार विष्टादि अशुचि से कीड़े प्रीति करते हैं, उसी प्रकार मनुष्य भी अशुचिमय क्षणिक शरीर से स्नेह करता है । वह शरीर ही उसके लिए बन्धन रूप बन जाता है । रस, रुधिर, मांस, चर्बी, अस्थि, मज्जा, वीर्य, अतें और विष्टादि अशुचि के स्थान रूप देह में पवित्रता कहाँ है ? नव द्वारों में से झरते हुए दुर्गन्धमय झरनों से बिगड़े हुए इस देह में, पवित्रता का संकल्प करना, यही मोहराज की महा मस्ति है । वीर्य और रुधिर से उत्पन्न, मलिन रस से बढ़ा हुआ और गर्भ में जरायु से ढँका हुआ यह देह, कैसे पवित्र हो सकता है ? माता के खाये हुए भोजनादि से उत्पन्न और रस नाड़ी में हो कर आये हुए रस का पान कर के बढ़े हुए शरीर को कोई भी सुज्ञ पवित्र नहीं मान सकता । दोष, धातु और मल से भरे हुए, कृमि और गिडोले के स्थान रूप तथा रोग रूपी सर्पों से इसे हुए शरीर को शुद्ध मानने की भूल कोई भी सुज्ञ नहीं कर सकता । अनेक प्रकार के सुगन्धी द्रव्यों से किया हुआ विलेपन, तत्काल मल रूप हो जाता है । ऐसे शरीर को पवित्र कहना भूल है । मुँह में सुगन्धित ताम्बुल चबा कर सोया हुआ मनुष्य, प्रातःकाल उठ कर अपने ही मुख की दुर्गन्ध से घृणा करता है । सुगन्धी पुष्प, पुष्पमाला और धूपादि भी जिस शरीर के द्वारा दुर्गन्धमय बन जाते हैं, उस शरीर को शुद्ध नहीं कहा जा सकता । जिस प्रकार शराब का घड़ा दुर्गन्धमय रहता है, उसी प्रकार उच्च प्रकार के सुगन्धित तेल और उबटन से स्वच्छ कर के प्रचूर पानी से धोया हुआ शरीर भी अपवित्र ही रहता 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001915
Book TitleTirthankar Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1976
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size8 MB
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