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भ० पद्मप्रभःजी-धर्मदेशना
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क्षेत्र के अनुसार वेदना होती रहती है। उन नारक क्षेत्रों की गर्मी और सर्दी इतनी अधिक है कि जहाँ लोहे का पर्वत भी यदि ले जाया जाय, तो उस क्षेत्र का स्पर्श करने के पूर्व ही वह गल जाता है, या बिखर कर छिन्न-भिन्न हो जाता है । इस प्रकार नरक की क्षेत्र-वेदना भी महान् भयंकर और असह्य है। इसके अतिरिक्त नारक जीवों के द्वारा एक दूसरे पर परस्पर किये जाने वाले प्रहारादि जन्य दुःख तथा परमाधमी+ देवों द्वारा दिये जाने वाले दुःख भी महान् भयंकर और सहन नहीं हो सकने योग्य होते हैं । इस प्रकार नारक जीवों को क्षेत्र सम्बन्धी, पारस्परिक मारकाट सम्बन्धी और परमाधामी देवों द्वारा दी हुई, यों तीन प्रकार की महादुःखकारी वेदना होती रहती है।
नारक जीव, छोटे-सकड़े मुंह वाली कुंभी में उत्पन्न होते हैं । जिस प्रकार सीसे आदि धातुओं की मोटी सलाइयों को यन्त्र में से खीच कर पतले तार बनाये जाते हैं, उसी प्रकार सकड़े मुंह वाली कुंभी में से परमाधामी देव, नारक जीवों को खींच कर बाहर निकालते है। कई परमाधामी देव नारकों को इस प्रकार पछाड़ते है, जिस प्रकार धोबी वस्त्रों को शिला पर पछाड़ता है। कोई परमाधामी नेरिये को इस प्रकार चीरता है, जिस प्रकार बढ़ई करवत से लकड़ी चीरता हो । कोई परमाधामी, नारक को घाने में डाल कर पीलते हैं।
नारक जीव नित्य तृषातुर रहते हैं। उन बेचारों को परमाधामी देव, उस वैतरिणी नदी पर ले जाते हैं, जिसका पानी तप्त लोह रस और सीसे जैसा है। उसमें उन्हें धकेल देते हैं । उनको वह तप्त रस बरबस पिलाया जाता है । पाप के भीषण उदय से पीड़ित उन नरकात्माओं की पीड़ा कितनी दारुण होती है ? असह्य गर्मी से पीड़ित वे नारक किसी वृक्ष की शीतल छाया में बैठने की इच्छा करते हैं, तब परमाधामी उन्हें असिपत्र वन में ले जाते हैं। उन वृक्षों के तलवार की धार के समान पत्र जब उन पर पड़ते हैं, तब उनके अंग कट-कट कर छिन्न-भिन्न हो जाते हैं। नारकों को दुःखी करने में ही सुख मानने वाले क्रूर परिणामी, महामिथ्यादृष्टि वे परमाधामी देव, उन नारकों को वज्रशूल जैसे अत्यन्त तीक्ष्ण काँटों वाले शाल्मलि वृक्ष अथवा अत्यन्त तप्त वज्रांगना से आलिंगन करवाते हैं और उन्हें पर-स्त्री आलिंगन की अपनी पापी मनोवृत्ति का स्मरण करवाते हैं । कहीं-कहीं नैरयिक की मांस-भक्षण की लोलुपता का स्मरण कराते हुए उन्हें उन्हीं के अंगों का मांस काट-काट
+ परमाधामी (परम अधर्मी) पापकर्म में ही रत रहने वाले । नारक जीवों को विविध प्रकार के दु:ख दे कर अपना मनोरंजन करने वाले कर एवं अधम देव ।
* यह मांस और वृक्षादि औदारिक शरीर के नहीं, वैक्रिय के तदनुरूप परिणत पुद्गल हैं।
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