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________________ १७८ तीर्थंकर चरित्र कर खिलाते हैं और पूर्व के मद्यपान का स्मरण करा कर, तप्त लोहरस का बरबस पान कराया जाता है । प्रबल पापोदय से दीन-हीन और अत्यन्त दुःखी हुए उन दुर्भागियों के उस वैक्रियशरीर में भी कोढ़, खुजली, महाशूल और कुंभीपाक आदि की भयंकर वेदना का निरंतर अनुभव होता रहता है । उन्हें मांस की तरह आग में जीवित सेंका जाता है । उनकी आँख आदि अंगों को काग, बक आदि पक्षियों के द्वारा खिचवाया जाता है । इतना भयंकर दुःख भोगते हुए और अंगोपांग के टुकड़े-टुकड़े हो जाने पर भी वे बिना स्थिति क्षय हुए मरते नहीं । उनके छिन्न-भिन्न अंग, पारे की तरह पुनः मिल कर जुड़ जाते हैं और दुःख भोग चालू ही रहता है । इस प्रकार के दुःख वे नारक जीव अपनी आयु अनुसार- - कम से कम दस हजार वर्ष और अधिक से अधिक तेतीस सागरोपम प्रमाण काल तक भोगते ही रहते हैं । तिथंच गति के दुःख तिर्यंच गति में इतनी विविधता और विचित्रता है कि जितमी अन्य गतियों में नहीं है । इसमें एकेन्द्रिय से लगा कर पंचेन्द्रिय तक के जीव हैं । जो भारीकर्मा जीव हैं, वे एकेंद्रिय में और वह भी पृथ्वीकाय में उत्पन्न हो कर हल आदि शस्त्रों से खोदे व फाड़े जाते हैं। हाथी, घोड़ा आदि से रौंदे जाते हैं। जल-प्रवाह से प्लावित होते हैं, दावानल से जलते हैं, कटु- तीक्ष्णादि रस और मूत्रादि से व्यथित होते हैं । कोई नमक के क्षार को प्राप्त होते है, तो कोई पानी में उबाले जाते हैं । कुंभकारादि पृथ्वीकाय के देह को खोद कर कूट-पीस कर, घट एवं ईटादि बना कर पचाते हैं। घर की भींतों में चुने जाते हैं । शिलाओं को टाँकी, छेनी आदि औजारों से छिला जाता है और पर्वत सरिता के प्रवाह से पृथ्वीकाय का भेदन हो कर विदारण होता है। इस प्रकार अनेक प्रकारों से पृथ्वीकाय की विराधना होती है । अप्काय के रूप में उत्पन्न हुए जीव को सूर्य की प्रचण्ड गर्मी से तप कर मरणान्तकं दुःख भोगना पड़ता है | बर्फ के रूप में घनीभूत होना पड़ता है । रज के द्वारा शोषण किया जाता है और क्षार आदि रस के सम्पर्क से मृत्यु को प्राप्त होते हैं । प्यासे मनुष्यों और पशुपक्षियादि से पिये जा कर भी अप्काय के जीवों की विराधना होती है । इन जीवों की विराधना भी अनेक प्रकार से होती है । तेजस्काय में उत्पन्न जीव, पानी आदि से बुझा कर मारे जाते हैं, घन आदि से कूटे-पीटे जाते हैं, ईंधनादि से दग्ध किये जाते हैं । वायुकाय के रूप में उत्पन्न जीवों की पंखा आदि से विराधना होती है और शीत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001915
Book TitleTirthankar Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1976
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size8 MB
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