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तीर्थंकर चरित्र
का क्षय कर के केवलज्ञान - केवलदर्शन प्राप्त किया ।
सर्वज्ञ - सर्वदर्शी भगवान् की प्रथम धर्मदेशना इस प्रकार हुई;
धर्मदेशना
संसार भावना
जिस प्रकार समुद्र में अपार पानी भरा हुआ है, उसी प्रकार संसार रूपी समुद्र भी अपरम्पार है । महासागर जैसे अपार संसार में चौरासी लाख जीव योनी में यह जीव भटकता ही रहता है और नाटक के पात्र के समान विविध प्रकार के स्वांग धारण करता है । कभी यह श्रोत्रीय ब्राह्मण जैसे कुल में जन्म लेता है, तो कभी चाण्डाल बन जाता है । कभी स्वामी तो कभी सेवक और कभी देव तो कभी क्षुद्र कीट भी हो जाता है । जिस प्रकार भाड़े के मकान में रहने वाला मनुष्य, विविध प्रकार के मकानों में निवास करता रहता है। कभी भव्य भवन में, तो कभी टूटे झोंपड़े में । इसी प्रकार यह जीव भी शुभाशुभ कर्मों के अनुसार भिन्न-भिन्न योनियों में उत्पन्न हुआ और मरा । ऐसी कौन-सी योनी है कि जिसमें यह जीव उत्पन्न नहीं हुआ + लोकाकाश के समस्त प्रदेशों में ऐसा एक भी प्रदेश शेष नहीं रहा कि जहाँ इस जीव ने कर्म से प्रेरित हो कर, अनेक रूप धारण कर के स्पर्श नहीं किया हो और पृथ्वी का एक बालाग्र जितना अंश भी शेष नहीं रहा कि जहाँ इस जीव ने जन्म-मरण नहीं किया हो । यह जीव समस्त लोकाकाश को विविध रूपों में स्पर्श कर चुका है ।
नारक की भयंकर वेदना
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मोटे तोर पर संसार में १ नारक २ तिर्यंच ३ मनुष्य और ४ देव, इस प्रकार चार प्रकार के प्राणी हैं । ये प्रायः कर्म के सम्बन्ध से बाधित हो कर अनेक प्रकार के दुःख भोगते रहते हैं । प्रथम तीन नरक में मात्र उष्ण वेदना है और अंत के तीन नरकों में शीत वेदना है । चौथी नरक में उष्ण और शीत- दोनों प्रकार की क्षेत्र वेदना है । प्रत्येक नरक में
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+ अनुत्तर विमान के देव, अपवाद रूप होने से आचार्यश्री ने बृहद् पक्ष की अपेक्षा से कथन किया है ।
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