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भ. संभवनाथ जी-धर्मदेशना
जाय, कितना ही गहरा संबंध रखा जाय और उस सहयोग को कितना ही दृढ़ बनाया जाय, किंतु वह अवश्य ही टूटने वाला है । सभी प्रकार के कौटुम्बिक संयोगों का वियोग अवश्य होता है।
जो भव्यात्मा सदा अनित्यता का ध्यान करते रहते हैं, वे अपने परम प्रिय पुत्र के वियोग से भी शोक नहीं करते, और जो मोहमूढ़ प्राणी, नित्यता का आग्रह करते हैं, वे अपने घर की एक भीत के गिर जाने से भी रुदन करने लगते हैं । शरीर, यौवन, धन एवं कुटुम्ब आदि ही अनित्य है--ऐसी बात नहीं है, यह समस्त सचराचर संसार ही अनित्य है।
___इस प्रकार सभी को अनित्य जान कर, आत्मार्थीजनों को चाहिए कि परिग्रह का त्याग कर के नित्यानन्दमय परम पद (मोक्ष) प्राप्त करने का प्रयत्न करें।
"यत्प्रातस्तन्न मध्यान्हे, यन्मध्यान्हे नतनिशि । निरीक्ष्यते भवेऽस्मिन् हा, पदार्थानामनित्यता ॥ १ ॥ शरीरं देहिनां सर्व, पुरुषार्थानिबंधनम् । प्रचंडपवनोद्ध त, घनाघन विनश्वरम् ॥ २ ॥ कल्लोलचपला लक्ष्मीः, संगमाः स्वप्नसंनिभा । वात्याव्यतिकरोत्क्षिप्त. तूलतुल्यं च यौवनम् ॥ ३ ॥ इत्यनित्यं जगद्वत्तं, स्थिरचित्तः प्रतिक्षणम् ।
तृष्णाकृष्णाहि मन्त्राय, निर्ममत्वाय चिन्तयेत् ।। ४ ॥ + --जिस वस्तु की जो स्थिति एवं सुन्दरता प्रातःकाल में होती है, वह मध्यान्ह में नहीं रहती और जो मध्यान्ह में होती है, वह रात्रि में नहीं दिखाई देती। इस प्रकार इस संसार में सभी पदार्थों की अनित्यता दिखाई देती है । प्राणियों के लिए जो शरीर, सभी प्रकार के पुरुषार्थ की सिद्धि का कारण है, वह भी इस प्रकार छिन्न-भिन्न हो जाता है, जिस प्रकार प्रचंड वायु से बादल बिखर कर विलय हो जाते हैं । लक्ष्मी, समुद्र की लहरों की भांति चंचल है । स्वजनों का संयोग भी स्वप्न के समान है और यौवन वायु के बहाव में उड़ते हुए अर्कतुल (आक की रुई) के समान अस्थिर है । इस प्रकार चित्त की स्थिरतापूर्वक जगत् की अनित्यता के चिन्तन रूपी मन्त्र से, तृष्णा रूपी काले सांप को वश में कर के निर्ममत्व होना चाहिए।
प्रभु के दो लाख साधु, तीन लाख छत्तीस हजार साध्वियें, २१५० चौदह पूर्वधर, + योगशास्त्र से उद्धृत । .
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