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________________ १६२ तीर्थंकर चरित्र हो कर नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार प्राणियों के शरीर भी उत्पन्न हो कर नष्ट हो जाते हैं। काल का स्वभाव ही नष्ट करने का है । वह धनाढय या निर्धन, राजा या रंक, समझदार या मूर्ख, ज्ञानी या अज्ञानी और सज्जन अथवा दुर्जन का भेद नहीं रखते हुए सब का समान रूप से संहार करता रहता है। काल का गुणी के प्रति अनुराग और दुर्गुणी के प्रति द्वेष नहीं है । जिस प्रकार दावानल, बड़े भारी अरण्य को, हरे, सूखे, अच्छे, बुरे और सफल-निष्फल आदि का भेद रखे बिना अपनी लपट में आने वाले सभी को भस्म कर देता है, उसी प्रकार काल भी सभी प्राणियों का संहार किया करता है। किसी कुशास्त्र ने यह लिख भी दिया हो कि-'किसी उपाय से यह शरीर स्थायी--अमर रहता है, तो ऐसी शंका को मन में स्थान ही नहीं देना चाहिए। जो देवेन्द्रादि सुमेरु पर्वत का दँड और पृथ्वी का छत्र बनाने में समर्थ हैं, वे भी मृत्यु से बचने में असमर्थ हैं । उनका शक्तिशाली शरीर भी यथासमय अपने-आप काल के गाल में चला जाता है । छोटे-से कीड़े से लगा कर महान् इन्द्र पर यमराज का शासन समान रूप से चल रहा है। ऐसी स्थिति में काल को भुलावा देने की बात, कोई सुज्ञ प्राणी तो सोच ही नहीं सकता । यदि किसी ने अपने पूर्वजों में से किसी को भी अमर रूप में जीवित देखा हो, तब तो काल को ठग लेने (भुलावा देने) की बात (न्याय मार्ग से विपरीत होते हुए भी) शंकास्पद होती है, किंतु ऐसा तो दिखाई नहीं देता। अतएव सभी शरीरधारियों के लिए मृत्यु अनिवार्य है। वृद्धावस्था, बल और रूप का हरण करती है और शिथिलता ला देती है । बल, सौन्दर्य और यौवन, ये सभी अनित्य हैं । जो कामिनियां, कामदेव की लीला के वश हो कर यौवनवय में जिन पुरुषों की ओर आकर्षित होती थी और उनका सम्पर्क चाहती थी, वे ही उन्हीं पुरुषों को वृद्धावस्था में देख कर घृणा करती हुई त्याग देती है। फिर उनका अस्तित्व भी उन्हें नहीं सुहाता। तात्पर्य यह कि शारीरिक शक्ति, सामर्थ्य रूप, सौन्दर्य और यौवन भी अनित्य है । वृद्धावस्था इन सब को बिगाड़ देती है। जिस धन को अनेक आपत्तियों, क्लेशों और कष्टों को सहन कर के जोड़ा गया और बिना उपभोग किये सुरक्षित रखा गया, धनवानों का वह प्रिय धन भी अचानक क्षणभर में नष्ट हो जाता है । इस प्रकार अग्नि, पानी आदि अनेक कारणों से. वर्षों के परिश्रम और दुःखों से जोड़ा गया धन भी नष्ट हो जाता है । अतएव वह भी पानी के परपोटे और समुद्र के फेन के समान अनित्य है। पत्नी पुत्र और बान्धवादि कुटुम्बियों तथा मित्रों का कितना ही उपकार किया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001915
Book TitleTirthankar Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1976
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size8 MB
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