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________________ भ० अजितनाथजी-इन्द्रजालिक की कथा अपने ज्ञान और अनुभव के बल पर जो भविष्यवाणी की है, वह कदापि अन्यथा नहीं हो सकती । बस थोड़ी ही देर और हैं । आप, मैं, यह राज्य-सभा और यह हरी-भरी पृथ्वी, थोड़ी ही देर रहेंगे । फिर सब नष्ट हो जाएगा"--ब्राह्मण ने हँसते हुए कहा ।। यह बात हो ही रही थी कि इतने में एक भयंकर गर्जना हुई। सभी लोग इस गर्जना से चौंक उठे । ब्राह्मण ने कहा-- " महाराज ! यह समुद्र की गंभीर गर्जना है । यह प्रलय की सूचना है। अब सावधान हो जाइए । देखिए, वह आ रहा है । वह.............वह.............वह.............. ब्राह्मण प्रलय का वर्णन करता जा रहा था। सभी लोगों की दृष्टि दूर-दूर तक पहुँच रही थी। इतने में सभी को दूर से ही, मृग-तृष्णा के समान सभी ओर से, पानी का प्रवाह अपनी ओर आता दिखाई दिया । ब्राह्मण राजा के निकट आ कर कहने लगा-- __ "देखिए, वह पहाड़ आधा डूब गया । वह विशाल वृक्ष देखिए, कितना डूब गया? अब तो वृक्षों की ऊपर की डालिये ही दिखाई दे रही है। वह गांव जलमग्न हो गया। . उधर देखो। वहाँ पानी के अतिरिक्त और है ही क्या ? देखिए, यह प्रवाह इधर ही आ रहा है। ये वृक्ष, पशु और मनुष्यों के शव तैरते दिखाई दे रहे हैं । देखिये, अब तो आपके किले तक पानी आ गया है । ओह ! अब तो भवन के आंगन में भी पानी आ गया।। नरेन्द्र ! कहाँ गया आपका नगर ? अब तो आपके इस विशाल भवन के अतिरिक्त कुछ भी दिखाई नहीं देता। सभी जलमग्न हो गया महाराज ! भवन का प्रथम खण्ड जलमग्न हो गया। अब दूसरा खण्ड भी भर रहा है । यह देखिये, अब तो तीसरे खण्ड में भी पानी भरने लगा है।" होते-होते सारा भवन डूबता दिखाई दिया । “कहाँ गये महाराज ! आपके वे मूर्ख ज्योतिषी ?" ब्राह्मण बोलता जा रहा था। राजा भयभीत था। बचने की कोई आशा नहीं रही थी। वह दिग्मूढ़ हो कर कूद पड़ा-उस महासागर में । किन्तु उसने अपने को सिंहासन पर सुरक्षित बैठा पाया । न सागर का पता, न पानी का । सब ज्यों का त्यों। विप्र, कमर में ढोल बाँध कर बजा रहा था और अपने ईष्टदेव की स्तुति करता हुआ हर्षोन्मत्त हो रहा था । राजा ने पूछा-"यह सब क्या है ?" " महाराज ! मैं वही इन्द्रजालिक हूँ। पहले आपने मेरी कला की उपेक्षा की, तो दूसरी बार मैं भविष्यवेत्ता बन कर आया और अपनी कला दिखलाई । मैने आपके सुयोग्य सभासदों का तिरस्कार किया और आपको भी कष्ट दिया, इसके लिए क्षमाप्रार्थी हूँ"नम्रतापूर्वक जादूगर ने कहा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001915
Book TitleTirthankar Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1976
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size8 MB
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