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१५.
तीर्थंकर चरित्र
“विप्र ! तुम्हें क्षमा माँगने की आवश्यकता नहीं हैं । तुमने मेरा उपकार ही किया है । इन्द्रजाल के समान इस संसार असारता का प्रत्यक्ष बोध दे कर तुमने मुझे सावधान कर दिया।"
राजा ने उस जादूगर को बहुत-सा पारितोषिक दे कर विदा किया और अपने पुत्र को राज्य का भार दे कर निग्रंथ अनगार बन गया।
कथा को पूर्ण करते हुए सुबुद्धि प्रधान ने कहा
"स्वामिन् ! यह सारा संसार ही इस कथा के इन्द्रजाल के समान है। इसमें संयोग और वियोग होते ही रहते हैं । आप तो जिनेश्वर भगवान् के कुल में चन्द्रमा के समान हैं और धर्मज्ञ हैं । आपको इस प्रकार शोक नहीं करना चाहिए।"
सुबुद्धि प्रधान के उद्बोधन से क्षणभर के लिए राजा का मोह हलका हुआ, किन्तु रह-रह कर पुनः उभरने लगा, तब दूसरा मन्त्री कहने लगा।
मायावी की अद्भुत कथा
"राजन् ! संसार में अनुकूल और प्रतिकूल संयोग तो मिलते ही रहते हैं। उदयभाव से उत्पन्न परिस्थितियों में हर्ष-शोक करना साधारण व्यक्ति के योग्य हो सकता है, परन्तु आप जैसे ज्ञानियों के लिए उचित नहीं है । संसार के संयोग नाटकीय दृश्यों के समान है । मैं आपको एक कथा सुनाता हूँ। जरा शान्ति से सुनिये--
एक राजा के पास उसके द्वारपाल ने आ कर कहा
--" महाराज ! एक पुरुष आपके दर्शन करना चाहता है । वह अपने को उच्चकोटि का मायावी बतलाता है और अपने कर्तव्य दिखाने आया है। आज्ञा हो, तो उपस्थित करूँ।"
राजा ने इन्कार करते हुए कहा--"नहीं, यह संसार ही मायामय है। इन्द्रजाल के मैने भी कई दृश्य देख लिए । अब विशेष देखने की इच्छा नहीं है । उसे मना कर दो।"
राजा की उपेक्षा से निराश एवं उदास हुआ मायावी चला गया। किंतु उसकी इच्छा वैसी ही रही। थोड़े दिनों के बाद वह अपना मायावी रूप ले कर राजा के सामने उपस्थित हुआ। वह एक हाथ में तलवार और दूसरे हाथ में भाला और साथ में एक सुन्दरतम स्त्री को लिये आकाश-मार्ग से राजा के सामने आ खड़ा हुआ। आश्चर्य के साथ राजा ने उससे पूछा--
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