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________________ भ० अजितनाथजी- --इन्द्रजालिक की कथा वह क्षणभर बाद ही नष्ट होते दिखाई देता है । इसलिए विवेकी पुरुष को संसार की विचित्रता का विचार कर के विवेक को जाग्रत रखना चाहिए । १४७. इन्द्रजालिक की कथा महाराजा सगर चक्रवर्ती का शोक दूर करने के लिए सुबुद्धि प्रधानमन्त्री इस प्रकार कथा सुनाने लगा- "जम्बूद्वीप के इसी भरत क्षेत्र के किसी नगर में एक राजा राज्य करता था । वह जैनधर्म रूपी सरोवर में हंस के समान था । सदाचारी और प्रजावत्सल था । न्याय-नीतिपूर्वक राज्य का संचालन करता था। एक समय वह सभा में बैठा हुआ था कि उसके सामने एक व्यक्ति उपस्थित हुआ । उसने राजा को प्रणाम कर के अपना परिचय देते हुए कहा" मैं वेदादि शास्त्र, शिल्पादि कला एवं अन्य कई विद्याओं में पारंगत हूँ । किन्तु इस समय मैं अपनी इन्द्रजालिक (जादुई ) विद्या का परिचय देने के लिए आपकी सेवा में उपस्थित हुआ हूँ । इस विद्या से मैं उद्यानों की रचना कर सकता हूँ, ऋतुओं का परिवर्तन और आकाश में गन्धर्वों द्वारा संगीत प्रकट कर सकता हूँ। में अदृश्य हो सकता हूँ। आग चबा सकता हूँ । धधकते हुए लोहे को खा सकता हूँ । जलचर, स्थलचर और खेचर ( आकाश में उड़ने वाली पक्षी) बन सकता हूँ । इच्छित पदार्थ को दूर देश से मँगवा सकता हूँ । पदार्थों के रूप पलट सकता हूँ और अन्य अनेक प्रकार के आश्चर्यकारी दृश्य दिखा सकता हूँ । मेरी प्रार्थना है कि आप मेरी कला देखें ।" Jain Education International " हे कलाविद् " - नरेश ने इन्द्रजालिक को सम्बोध कर कहा-": 'अरे, तुमने बुद्धि hi faगाड़ने वाली इस कला के पीछे अपना अनुपम मानवभव क्यों गँवाया ? इस जन्म से तो परमार्थ की साधना करनी थी । अब तुम आये हो, तो मैं तुम्हें तुम्हारी इच्छानुसार धन दे कर संतुष्ट करता हूँ, किन्तु ऐसे जादुई खेल देखने की मेरी रुचि नहीं है ।" " राजन् ! मैं दया का पात्र नहीं हूँ। में कलाविद् हूँ । अपनी कला का परिचय दिये बिना में किसी का दान ग्रहण नहीं करता । यदि आपको मेरी कला के प्रति आदर नहीं है, तो रहने दीजिए" - कह कर और नमस्कार कर के जादूगर चलता बना । राजा ने उसे मनाने का प्रयत्न किया, किन्तु वह नहीं रुका और चला ही गया । वही जादूगर दूसरी बार एक ब्राह्मण का रूप बना कर राजा के सामने उपस्थित For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.001915
Book TitleTirthankar Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1976
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size8 MB
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